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४६. तीर्थ यात्रा की
महिमा
जिन लोगों ने जहाँ भक्ति-गूंजन किया हो... धुन मचायी हो- उक्त स्थान पर मनोवर्गणा अन्य मनुष्यों के सम्बन्ध में हुए भक्ति के परणिाम में निमित्त कारणभूत परिगह होती है। -- श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिजी
पादरा दिनांक : २३-३-१९९२
प्रायः द्रव्य मन से भाव मन की परिस्फूर्ति होती है। जबकि भाव मन कभी ज्ञेय पदार्थों के पास नहीं जाता और ज्ञेय पदार्थ गमन कर मन के पास जा, उसे प्राप्त नहीं होते।द्रव्य मन या भाव मन इन दोनों में से किसी मन का शरीर के बाहर निकलने का नहीं होता। वस्तुतः कईं लोगों की ऐसी मान्यता है कि मन के आंदोलन अर्थात् मनोवर्गणा को बाहर दूसरे मनुष्यों के पास प्रेषित कर सकते हैं, निहायत वह जैनागम के विरुद्ध है।
प्रायः जैनागमों में ऐसा अवबोधित किया जाता है कि मन द्वारा अन्यों के शुभाशुभ चिंतन में तेजस् शरीरादि अन्य पुद्गलों द्वारा अन्य जीवों का शुभाशुभ कर सकते हैं। इसी तरह मनोवर्गणा से अलग हुई ऐसी कृष्णादि अशुभ लेश्या वन शुकलादि शुभलेश्या के पुद्गल अंतमुहूर्त में अन्य रुप में परिणत होते हैं या असंख्यात काल तक मूल स्वरूप में कायम रहते हैं। अलग हुई ऐसी मनोकर्मण में भी ऐसा ही समझना चाहिए।
___ द्रव्य मन में हमेशा षड़ गुए हानि-वृद्धि स्वरूप उत्पाद-व्यय होता रहता है। इसी तरह भाव मन में भी षड़ गुण हानि-वृद्धि स्वरूप उत्पाद-व्यय निरंतर होता रहता हैं।
उच्च लेश्या के परिगाम स्वरूप द्रव्य मनोवर्गणांतः पाति पुद्गल शुभादि ग्म परिणाम को धारण करते हैं। और यदि उक्त द्रव्य मन से शुभ पुद्गल अलग हो जाते हैं तो उनकी स्थिति उपयुक्त वचनानुसार ही होती है।
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