Book Title: Path Ke Fool
Author(s): Buddhisagarsuri, Ranjan Parmar
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 123
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३. श्रद्धा-चिन्तामणि पादरा दिनांक : ३०-३-१९१२ किसी वस्तु के अनंत धर्म से केवल ज्ञानी भलीभांति परिचित होते हैं। तथापि मतिज्ञानी वस्तु के अनंत धर्म को अच्छी तरह जानते हुए भी सर्वज्ञ वचन के प्रति रही अटूट श्रद्धा से अनंत धर्म में श्रद्धासिक्त होने के फलस्वरूप ज्ञानी माना जाता है। लेकिन मिथ्या दृष्टि ज्ञानी कदापि ज्ञानी नहीं माना जाता। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी सम्यक्-दृष्टि जीव को संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से युक्त होता है। वह भी ज्ञान स्वरूप ही हैं। संशय का समावेश प्रायः कथंचित् रहा में किया गया है। मिथ्यादृष्टि जीव ने ऐसा कौनसा अपराध किया है कि उसके संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय को अज्ञान रूप माना जाय? श्री विशेषावश्यक भाष्य की ३१९ वीं गाथा में बतलाया है कि मिथ्यादृष्टि का सर्वज्ञान अज्ञान रूप ही है। उक्त गाथा एवं ३२० वीं गाथा का मनन-चिंतन करने पर ज्ञान होता है कि उसका ज्ञान संशय स्वरूप होता है। तथा च तद्गाथा सदसद विसेसणाओ भवेदउ जहिच्छि ओ बलंभाओ। नागफलाभाओ मिच्छदिट्टिग्य अन्नाणं ।।३१९।। एवं जाणइ सव्वं जाणई, सव्वं च जाणमेगंति। इय सव्वमयं सव्वं, समदिट्टिरस ज वत्थु ।।३२०।। १०४ For Private and Personal Use Only

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