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समझे कि उन्हें आश्रव-हेतु संवर रूपमें परळित होते हैं, कभी मथ्यिा वविाद नहीं करें । में परिणत हुए हैं, ऐसा मध्यिा विवाद न करे। .
अनुभव की शाला का विद्यार्थी बनना कोई सामान्य बात नहीं हैं । मनुष्य मात्र का एक अनुभव ही वास्तव में उत्तरोत्तर अनेक अनुभव कराने में समर्थ होता है ।
फलतः प्रायः अतंरग एवं बाह्य चारित्र्य प्राप्ति करने हेतु प्रयत्नशील रहना चाहिए ढीक वैसे ही चारत्र्यि धारकों को सरगात्व का भूलकर भी कभी दुरपयोग नहीं करना चाहिए
___ हमेशा आत्म-साध्य को परिलक्षित कर संज्वलन क्रोध, माया, मान एवं लोभ को प्रशस्य रुप में परिणत करने चाहिए । .
आत्मा के शुद्ध धर्म का उपयोग धारणकर उसमें नित्यप्रति रमणता करनेवाले को उच्च परिणाम की धारा प्राप्त होती है । उसी तरह गीतार्थ गुरुदेव के प्रति राग धारण करने पर उसे आत्मा के आलम्बन स्वरूप में परिवर्तित कर सकते हैं । अंततोगत्वा आत्मा रूपी साध्य-रसिया का लक्ष्य तो वीतरागावस्था रूप होती है और वीतराग अवस्था के उपयोगी के लिए सराग संयम एक सोपान की तरह होता है।
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