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६१. आत्म-सुख
एक बार आत्म-सुख का अनुभव प्राप्त हो जाता है तो संसार के पौद्गलिक सुख का मोह अपनेआप मिट जाता है । - श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
बडौदा दिनांक : ११-४-१९१२
पंचेन्द्रिय के साथ जब मन जुड़ता है तब इंद्रियाँ विषय-ग्रहण करती हैं । वैसे ही यदि मन को आत्मा के शुद्ध-विशुद्ध गुणों के साथ जोड़ा जाय तो बाह्य इंद्रियो का व्यापार (कार्य) प्रवर्तित नहीं होता ।।
आत्मा के साथ प्रवृत्त मन वास्तव में आत्मिक सुख प्रकटीकरण में निमित्त स्वरूप परिणत होता है । इसी तरह आत्मा में परिणत भाव मन बाह्य दुःख के संयोग से दूर रहता है । अतः आत्मा में परिणत मन कर्म उपार्जन करने में शक्तिमान नहीं होता । लेकिन मोहादि कर्मों को निर्मूलन करने में अवश्य शक्तिमान होता है ।
___ वैसे ही बाह्य इंद्रियों के सम्बन्ध में भी राग द्वेष से प्रेरित हो, भाव मन परिणत होता है तब कर्म-बंधन होता है । लेकिन बाह्य इंद्रियों के सम्बन्ध में गग-द्वेष युक्त मन नहीं जुडता तब बाह्य विषय कर्म बिन्धन के एतु स्वरूप परिमत नहीं होते ।
वस्तुतः राग-द्वेष के परिणाम से विरहित मन मोक्ष का कारण है । जब आत्म-स्वरूप में रमणता की जाती है तब उसे भाव चरित्र कहा जाता
आत्मा में रमणता करते हुए प्रायः आनन्दरस की झांकी का अनुभव होता है। उक्त समय जीव के लिए त्रिभुवन के अलभ्य बाद्य सुख तृण समान भासित होते
है।
एक बार आत्म-सुख का अनुभव प्राप्त हो जाता है तो संसार के पौद्गलिक
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