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आत्मिकानंद सम्मुख गमन करने में शलिमान होती है ।
अध्यात्मज्ञान रुपी सूर्यकिरणों से अहं ममत्त्व रूपी बर्फिली चोटियां क्षणमात्रे में दवएत हो जाती है और आत्मा रुपी व्योममंडल मं शोक, चिंता न आवेग-आकाश के बादल कही द्रष्टि गोचर नहीं होते ।
वस्तुत : आत्मा नित्य ज्ञान-प्रकाश उदित है । अतः आत्म-ज्ञान को आत्मसात कर आत्म-जर्म में परिगत होने पर आत्मा का आनंन्दरस प्रकटित हुए बिना नहीं रहता।
परिगामतः विश्व में मरजिया गोताखोर बन, आत्मा के आनन्दरस का पान कर आत्म भावसे जीवित रहना चाहिए । क्योंकि आत्मा के आनन्दरस का पान करनेवाले जो कुछ भी करते हैं और कहते हैं, उनमें साध्य शून्य द्रष्टि कदापि नहीं होती।
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