Book Title: Path Ke Fool
Author(s): Buddhisagarsuri, Ranjan Parmar
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 143
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३. सहजानन्द बडौदा दिनांक : १३-४-१९१२ आत्मा को आत्म स्वरूप में आत्मसात् रस प्राप्त कर सकते हैं। कई महात्माओं ने पाताल-कुएँ के प्रवाह की भाँति इंद्रियातीत आत्मानंद अनुभव किया है। वर्तमान में भी ऐसा ही स्वर्गीय आनंद अमुक अंश में प्राप्त कर सकते हैं। अध्यात्मज्ञान से परमात्मा जैसा अक्षय सुख का आस्वाद ले सकते है और ऐसा सुख आत्मा में ही निहित है। ऐसी स्थिति में उसके लिए भला वाह्य जगत मे मिथ्या प्रयत्न क्यों करने चाहिए । - श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी धर्म की नींव अध्यात्मज्ञान है । अतः अध्यात्मज्ञान के ऐरावत पर आरुढ मानव मुख में सदैव निमग्न रहता है। जिन्हें शुष्कता आनंद विरहित रसमय ऐसे अध्यात्मज्ञान की प्राप्ति होती हैं, निसंदेह उनकी मानसिक सृष्टि वास्तव में शुक्ल लेश्या के संयोगवश स्फटिक रत्न की आँति निर्मल, पवित्र होती है। मानव-मन में अध्यात्मज्ञान परिणत होने से कृष्णादि लेश्याए विद्यमान नहीं रहतीं। बग्तुतः जिसे अध्यात्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, वह सदैव के लिए आत्मसरि का विलासी बन जाता है और देवी-देवताओं के विहार के बनिस्बत उसका विहार अत्यंत आनन्दमय होता है। अध्यात्मज्ञान प्राप्त करने से सर्व प्रकार के दोष व अरिष्ट टालने की बुद्धि प्रकट हो सकती है। जो व्यक्ति आत्म-श्रद्धा एवं आत्म-शक्तियों को विकस्वर करने का कार्य करता है, वह सर्व मानव ... सर्व जीवों के दय में प्रवेश कर सभी को स्वयं के निकट... समीप ला, उन्हें महान लाभ से लाभान्वित कर सकता है। लयमच जिसके जिसके हृदय में अध्यात्मज्ञान की गंगा निरंतर प्रवाहित है, एण्ड पाप पी मल अपनेआप जुल जाता है अर्थात् उसका जीवन निर्मल... पवित्र बन जाता है। __अध्यात्मरस की शीतलता वास्तव में अंतर के एर्व पापों को जोने में समर्थ है। खिन्न ब्रह्मांड में अध्यात्मज्ञान के विचार प्रसारित होने से मानव जाति १२४ For Private and Personal Use Only

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