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दया, भक्ति, सत्य, पवित्र प्रेम, निरहंकार, परोपकार, उदार भाव, समानवृत्ति, दानवृत्ति, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, विनम एवं विवेक के माध्यम से जिनका विकास नहीं होता ऐसों की गणना यदि साक्षरों में की जाती हों तो निस्संदेह व दानवीवृत्ति धारण कर सकते हैं।
सद्गुण विहीन शिक्षा मसलन बकरी के गले में लटकता स्तन, जिससे न उने लाभ प्राप्त होता है, ना ही अन्य किसी को।
किसी भाषा के सर्वश्रेष्ठ साक्षर होने के उपरांत भी बिना उत्तम सद्गुणों के मानव स्व तथा विश्व को आनंदित जीवन का लाभ प्रदान करने में असमर्थ होता है । यदि, सद्गुणो की उच्च भावना से मन विकसित नहीं होता हो तो ऐसी शिक्षा की शक्ति से अन्यजनों को पीडित, दमित, व त्रस्त ही किया जा सकता है |
वस्तुतः सर्वोच्च गुणों से दुनिया जन्नत (स्वर्ग) बन जाय अर्थात् हमेशा के लिए दुनिया से दुश्मनी, इर्ष्या, हिंसा, असित्य, चोरी, विश्वासघात, स्वार्थ, वैमनष्य, प्रपंच, क्रोध, अभिमान. माया, लोम, निंदा, धर्मयुद्ध व अज्ञान आदि दोषों का निर्मूलन हो, ऐसी शिक्षा का सर्वत्र प्रसार करने की अत्यंत आवश्यक्ता है ।
सहजानंदमय शांतरस की शिक्षा की वास्तव में अंतिम और सुगम शिक्षा है।
आत्मा के अनंतानंत गुण विकस्वर होवे ऐसा ध्यान एक प्रकार से समाधि स्वरूप अभ्यास ही है। अतः वह अंतिम आध्यात्मिक शिक्षा व ज्ञान. प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।
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