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भाषा तो केवल संकेत स्वरूप होने के कारण देश वकाल के संयोगवश विभिन्न विविध भाषाओं के वप में प्रकट होती हैं । वैसे ही सर्व जीव देश व कालानुसार जीवित... प्रसारित भाषा में कोइ ज्ञ भी बात भलीभाँति समझ सकते हैं । परिणाम स्वरूप तीर्थंकर भगवंत भी उसका अनुसरण कर प्रायः अर्ध प्राकृत मिश्रित भाषा में उपदेश प्रदान करते हैं ऐसा करने से उनके केवलज्ञान को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचती ।
प्राचीन भाषा एवं प्राचीन भाषा में आलेखित अमूल्य ग्रंथ-निधि का संरक्षण व संवर्धन करना कभी नहीं भूलना चाहिए । वल्कि उसके लिए सदैव सावजानी बरतनी चाहिए।
भाषीय पांडित्य का कदापि अहंकार नहीं करना चाहिए । मस्तिष्क रूपी संदूकची में भाषा के शब्द रूपी दानों को भरना व मंगाने मात्र से ही यदि पांडित्य की प्राप्ति होती हो तो रेलगाडी को भी पांडित्य - प्राप्ति हो सकती है |
। वास्तव में शब्दों द्वारा विवेक - ज्ञान प्राप्त कर आत्मीय सद्गुण प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । शुद्ध प्रेम, मित्रता, भावना, क्षमादि सद्गुण-प्राप्ति जिससे संभव बन जाए तो निहायत वह उक्त भाषा की सफलता मानी जाएगी ।
वैसे देखा जाय तो भाषा के बनिस्बत आंतरिक सद्गुणों की स्फूर्ति... स्फुरण विशेष महत्त्व रखती हैं । क्योंकि गुण- लालित्य की तुलना में भाषा - लालित्य का कोई महत्त्व नहीं हैं ।
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