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५२. शुद्ध भक्ति
अमृत वृष्टि
जिस की हृदय -- धरा पर उत्तम ज्ञान, सत्य, त्यागादि के वृक्ष उग आयें हों तो समझ लेना चाहिए कि उसके हृदय पर उत्तम प्रभु - भक्ति की बुष्टि अवश्य
-- श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
पादरा दिनांक : २९-३-१९१२
ज्ञान गर्भित प्रभु की भक्ति में नित्य आकंठ डूबे रहने तथा परमात्मा को ही श्रद्धेयवश अपना एकमेव ध्येय स्वरूप मानने से आत्मा स्वयं ही परमात्मा स्वरूप धारण करती जाती है।
गुर्जर भाषा में श्रीमद् आनन्दधनजी, श्रीमद् देवचंद्र , श्रीमद् यशोविजयजी, श्रीमद् पद्मविजयजी द्वारा आलेखित स्तवनों में प्राय : उत्कृष्ट असीम भक्ति के सुंदर उद्गार (स्वर) यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं । उक्त महात्माओं के हृदयोदधि में ज्ञान परिणति के माध्यम से उत्पन्न व लहराती भक्ति - तरंगें अनुपम ही नहीं, बल्कि अपूर्व हैं, ऐसा नित्यप्रति प्रतिभासित है ।
प्रभु के शुद्ध स्वरूप को ज्ञेय रूप में हृदय में धारण कर तथा प्रभु रूप ज्ञेय के सम्मुख स्वयं ही आत्मा की एकता स्थापित कर आनन्द रूपी रस का आस्वाद लेनेवाले महापुरुष वाकई धन्य हैं ।
भगवान के अस्तिधर्मी के साथ अपने मन को जोड़ना तथा प्रभु-गुणों में अहर्निश लीन-तल्लीन रहना, यह सर्वोत्तम भक्ति माना जाता है । फलस्वरूप परमात्मा के ज्ञानादि गुणों के प्रति मन को इतना तो स्थिर कर देना चाहिए कि स्वप्न में भी उसका भास न हो । निस्संदेह ऐसी उत्कृष्ट भक्ति के अधिकारी गीतार्थ हैं ।
बालजीव प्रायः अपनी बुध्धि की क्षमता के अनुसार भक्ति करते हैं अतः अपनी क्षमता के अनुसार वे जैसी भक्ति करते हैं, उन्हें करने देना चाहिए । लेकिन उन्हें ज्ञान गर्भित पर से आत्मभक्ति के मार्ग पर लाने का निरंतर प्रयास करना
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