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हैं । तथापि संपूर्ण गुणमय ऐसे श्री तीर्थकरदेव उन्हें नमस्कार करते हैं, इसमें अवश्य गूढ भाव ...रहम्य भेद छिपा हुआ है ।
इस तरह श्री तीर्थंकर भगवान स्वंय कृतकृत्य होने के उपरांत भी विश्व में विनय की परिपाटी सिखाकर अन्यजनों के समक्ष अपना उदाहरण प्रस्तुत कर प्रति बोधित करते हैं कि श्रुतज्ञान या चतुर्विध संघ के माध्यम से ही धर्म परम्परा अबाधित रूप से टिकनेवाली है और इसी में से तीर्थंकरादि महान विभूतिओं की उत्पत्ति होती है । फलतः श्रुतज्ञान या चतुर्विध संघ स्वरूप शाश्वत तीर्थ को नमस्कार करना चाहिए 'विणओ मूळं धम्मस्स' अथाँत धर्म का मूल विनय है ।यों भगवान ने सर्वगुण सम्पन्न फिर भी दोषित तथा गुणसम्पन्न तीर्थ कों नमस्कार कर विनय गुण की महत्ता प्रदर्शित की है।
ऐसे कई लोग जो सिर्फ अपने में रहे गुणों पर अभिमान ...अहंकार करते हैं यदि वे श्री तीर्थकर द्वारा संघ को किये गये नमस्कार का स्मरण करें तो निस्संदेह जैन संघ के किसी भी सदस्य को सामान्य-तुच्छ समझने तथा उसकी अवहेलना करने की प्रवृत्ति का वे त्याग कर सकते हैं ।
श्री तीर्थकर भगवान संघ को नमस्कार करते हैं और इस तरह अपने दासभूत ऐसे संघ को नमस्कार कर जगत के हृदय में विनयगुण का अमिट स्थान प्रस्थापित करते हैं।
फलत : निरंतर उनके पदचिन्हों का अनुसरन करने वाले साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका तथा अन्यजनों को भगवान द्वारा प्रस्तुत उदाहरण को अपने हृदय में धारण कर भूलकर भी कभी किसी की निंदा अथवा तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
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