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वक्ता सर्व प्रथम जिस भाषा-द्रव्य को ग्रहण करता है उसे द्वितीय बार(समय) में छोड देता...तजता है और उसी तरह तृतीय बार ग्रहण किये गये भाषा-द्रव्य का चतुर्थ समय में परित्याग करता है।
प्रज्ञापना-सूत्र में ऐसा कहा गया है कि आमतौर से ग्रहण में समय का अंतर नहीं है। लेकिन शब्द-द्रव्य के विसर्जन में समयांतर है।
प्रथः बार में बिना निःसर्ग के भी ग्रहण का सद्भाव समाहित है। अतः ग्रहण स्वतंत्र है और विसर्जन परतंत्र है। क्योंकि ग्रहण किये गये शब्द-द्रव्यों को उक्त निर्धारित काल (ग्रहण के समयकाल) में वक्ता नहीं तजता। किंतु पूर्वानुपूर्व में ग्रहण किये गये शब्द-द्रव्यों का उत्तरोत्तर समय में परित्याग करता है।
. औदारिक, वैक्रिय एवं आहारिक शरीग्युक्तजीव प्रायः शब्द-द्रव्यों को ग्रहण करता है और छोडता है। इस तरह सत्या, सत्यमृषा, मूषा एवं असत्यमृषा आदि चार प्रकार के भाषा-द्रव्यों को उपर्युक्त तीन शरीरयुक्त जीव ग्रहण करता है और तजता
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