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५१. विनय गुण
कई लोग जो सिर्फ अपने गुणों पर ही अभिमान करते हैं । यदि वे श्री तीर्थंकर द्वारा संघ को किये गये नमस्कार का स्मरण
करें तो निस्संदेह वे जैन संघ में रहे किसी भी मनुष्य को समझने तथा उसकी अवहेलना करने की प्रवृत्ति का परित्याग कर सकते हैं। -- श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीजी
पादरा
दिनांक: २८-३-१९१२
इस जगत में रहते हुए जहाँ-तहाँ गुण ग्रहण करने का सदैव व्यापार करना चाहिए । स्वयं को सर्वगुण सम्पन्न समझ, भूल कर भी कभी किसी की निंदा या टीकाटिप्पणी नहीं करनी चाहिए । जघन्य अपराधी मानव के जीवन में भी यदि गुणग्राहक दृष्टि से झांका जाय तो उसमें अमुक प्रकार के गुण अवश्य दृष्टिगोचर होते हैं । स्वयं सविशेष गुणों से युक्त होने पर अपने से अधिक दोषित जीवों के प्रति तिरस्कार अथवा उसका अशुभ चिंतन नहीं करना चाहिए ।
___ श्री तीर्थंकर भगवंत तेरहवें गुण स्थानक पर होते हैं । टीक वैसे ही देवाधिदेव केवली भगवान के बैटने हेतु देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता रत्न सुवर्णमय समवसरण का निर्माण करते हैं । उक्त समवसरण में प्रवेश कर आसनस्थ होते समय स्वयं तीर्थंकरदेव 'नमो तित्थरस' शब्दोच्चार के माध्यम से सम्यक् श्रुतज्ञान के आधारस्तम्भ ऐसे साधु -साध्वी एवं श्रावक - श्राविका स्वरूप चतुर्विध संघ को नमस्कार करते हैं।
भगवती सूत्र के बीसवें शतक में साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविकाओं को संघ कहा है और मूल पाट में चतुर्विध संघ के रूप में प्रतिपादन किया है ।
श्री तीर्थंकर भगवान चतुर्विध संघ को नमस्कार करते हैं, इससे महत्त्वपूर्ण सार- ग्रहण करना चाहिए। साधु-साध्वी प्राय : छठवें व सातवें गुणस्थानक पर स्थित हैं। उनमें अभी मोह प्रकृति शेष है। जबकि श्रावक - श्राविकाओं का समावेश चतुर्थ पंचम गुणस्थानक में होता है । उनमें भी जाती कर्म रुपी विविधे दोष निहित
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