Book Title: Path Ke Fool
Author(s): Buddhisagarsuri, Ranjan Parmar
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाहिण। किसी भी क्षेत्रकाल में यदि हमारे मन में परमात्मा का स्वरूप ध्येय रूप में भासित होता हो तो निसंदेह आत्मा में क्षयोपशम रूपी वासना भी परमात्मा के गुणों की ही होती है । वाग्नव में ऐसी उच्च श्रेणी की भक्ति योगीजनों को ही प्राप्त होती है। जिस भक्ति - भावना में मन, वाणी व काया की एकरूपता नहीं होती, वह सर्वोत्तम भक्ति नहीं गिनी जाती । परमात्मा की भक्ति से तो वीर्योल्लास प्रकटित होना चाहिए । साथ ही अलौकिक आनन्द की अनुभूति होनी चाहिए । परमात्मा की भक्ति से आत्मा सवयं परमात्मा में परिवर्तित हो जाती है । परमात्मा के भक्तो सृष्टि के सभी जीव अपनी आत्मा सदृश लगते हैं और उपके हृदय में विशुद्ध प्रेम की रसधारा सदैव प्रकटित होने ये शुद्ध चार्गत्र का गठन होता रहता वाग्नव में रजोगुणी व तमोगुणी भक्ति के बनिस्बत सात्त्विक गुणी सतोगुणी भक्ति अनंतगुनी उत्तम है । परमात्मा के गुणों के साथ तादात्मय साथ भक्ति प्रकटित करने से हृदय रूपी क्षेत्र में शुद्ध प्रेम म्वरूप पुष्करावर्त मेघ की वृष्टि होती है । फलस्वरूप हृदय- धग पर सदुपयोग रूपी असंख्य वृक्ष अंकुरित हो, झुमने लगते यह भला कैसे संभव है कि हृदय धग पर सर्वोत्तम भक्ति रूपी वृष्टि हो और सद्गुणों की लता लहलहा न उटे ? जिस किसी की हृदय-धग पर उत्तम ज्ञानु सत्य, त्यागादि के वृक्ष उग आयें हों तो समझ लेना चाहिए कि उसके हृदय पर उत्तम प्रभुभक्ति की वृष्टि अवश्य हुई है। परमात्मा के असंख्य गुणों का चिंतन-मनन कर अपनी आत्मा में उन्हें साकार करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। हम परमात्मा की इसी आज्ञा म्पी भक्ति के अनन्य उपासक हैं। १०३ For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149