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४५. परमात्म पद
जिसके मन में बाह्य पदार्थों के कारण हर्ष अथवा शोक की उत्पत्ति नहीं होती, वास्तव में ऐसी अवस्था प्राप्त आत्मा सचे अर्थ में क्रियायोगी बन सदैव निर्लिप्त रहकर प्रायः असंख्य जीवों का उद्धार करने में समर्थ होता है। -श्रीमद् बुद्धिसागरमरिजी
पादरा दिनांक : २२-३-१९१२
आत्मा में जब क्षयोपशम ज्ञान द्वारा रमणता की जाती है तब आनन्द का पारावार नहीं रहता। मन की अवस्था शांत-प्रशांत में परिवर्तित हो जाती हैं तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे संभार में कोई कार्य... दायित्व शेष रह गया हो। जैसे जैसे मन शांत होता जाता है और आत्म-स्वरूप में रमण करता है वै ये वैये गत शरीर की भाँति बाह्य विश्व विस्मृत हो जाता है ! ऐसी स्थिति में मानसिक व्यापार बंद होने के कारण लेश्या व कर्म-चक्र भी अमुक अंश में व्यापार (प्रवृत्ति) विरहित हो जाता
जिस मन के द्वारा कर्म-बंधन होता है। वास्तव में वह आत्मा से जुड़ा हुआ होने के कारण कर्म-बंधन हो नहीं सकता...। आत्मा से जुड़ा हुआ मन व वध आनन्दानुभूति में आकंठ डूबा मन वास्तव में अद्वैतभाव का अनुभव करता है ।
कईं बार मानव-मन बाह्य पदार्थों में नहीं लगता जबकि क्षयोपशम भाव का उपयोग सदैव एक तरह का न होने के कारण हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहती और शरीरादि अथवा अन्यजनों के श्रेयार्थ मन को दूसरे पदार्थों के साथ सम्बन्धित करना पडता है। फलतः इस प्रकार वह मन आत्मा के साथ एक-सा तादात्मय साध नहीं सकता... रमण नहीं कर सकता।
आत्मा के साथ जब मन जुड़ा हुआ होता है, तब ज्ञाणावरणीयादि कर्म का क्षयोपशम हो जाने से आत्मा के ज्ञानादि गुणों की पुष्टि निरंतर होती रहती है।
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