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पाखण्डियों का अनाधिकार ही दोषमूलक है। उसी तरह. गुरु-उपदेश की विपरीत व्याख्या प्रतिपादित करने वाले गुरुभक्त नहीं हो सकते, इसमें उनकी दोष-दृष्टि के ही दर्शन होते हैं।
वस्तुतः तलवार की धार पर चलना सरल है। किंतु गुरुभक्ति करना दुष्कर कार्य है। आमतौर से गुरूभक्ति करते हुए गुरुभक्त को उनकी आज्ञानुसार ही अपने तन, मन व वाणी में परिवर्तन लाना चाहिए। तभी तो खड्ग-धार पर चलना जितना मुश्किल...दुष्कर है, उससे अधिक दुष्कर कार्य गुरुभक्ति में स्थिर रहना है।।
गुरु की उत्तमोत्तम भक्ति की अवस्था में उनकी आज्ञा का कारण नहीं पूछा जाता और गुर्वाज्ञा में ही सर्व हित समाहित है, ऐसी संपूर्ण श्रद्धा रखनी पड़ती है। टीक उसी तरह उनकी आज्ञा को ही धर्म मानना पडता है। ऐसी भक्ति करनेवाले भक्तगणों को प्रायः उद्वेग, भय लज्जा एवम् दुर्जनों के कुबोध का सर्वस्व परित्याग करना पड़ता है। वर्तमान में इस तरह के भक्त कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते और जो हैं उनकी संख्या नगण्य ही हैं।
आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए शिष्य को गुरु-भक्ति में लीन हो, अपनी शंका-कुशंकाएँ एवम् प्रश्न पूछने चाहिए। कई बार अवसर आने पर स्वयं को शिष्य अथवा भक्त कहलानेवाले भी गुरुभक्ति से मुँह मोड लेते हैं। जब कि उत्तम भक्त अथवा शिष्य इति से अंत तक गुरुभक्ति में दत्तचित्त...सुदृढ रह, आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं । फलतः ऐसे ही अनन्य भक्त व शिष्य गुरु-हृदय को आकर्षित कर उनकी कृपा...महर नजर के अधिकारी बनते हैं।
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