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१२. निष्काम भाव से
शुभकर्म करो 'निष्काम' शब्द से भौतिक कामना (= अर्थ एवं काम की इच्छा) रहित
यदि अपना कार्य योग्य व उपयुक्त है, यह तथ्य ध्यान में आ जाय तो दूसरों का अभिप्राय जानने व सुनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
वलसाड दिनांक : २१-१-१९१२
उपदेश प्रदान करना व ग्रंथ-लेखन आदि धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करते समय भूल कर भी कभी लोग तुम्हारी प्रशंसा करे...गुणगान करे ऐसी भावना अपने मन में नहीं रखनी चाहिए, अपितु यथाशक्ति अपना कर्तव्य समझ, नियमित रूप से धार्मिक कार्यों को अंजाम देते रहना चाहिए। साथ ही लोकमत क्या है, इसका तनिक भी विचार किये बिना वह अच्छा, उपयुक्त व योग्य है या नहीं, इसका ही निरंतर विचार करना चाहिए। यदि तुम्हारा कार्य उत्तम व उपयुक्त है तो उसके सम्बन्ध में दूसरों का अभिप्राय जानने व सुनने की कतई इच्छा नहीं करनी चाहिए।
सुंदर, सर्वोत्तम पारमार्थिक कार्य करते समय अच्छे या बुरे जनमत की परवाह नहीं करनी चाहिए। जीवन में ऐसा कठोर निर्णय कर सदैव सत्मार्ग पर प्रवृत्त होने का एकमेव लक्ष्य रखना चाहिए। जो कोई आत्मा...जीव महात्माओं की परमोत्कर्ष कोटि पर स्थित हों, उन्हें उपर्युक्त सीख को ध्यान में रख, प्रायः उत्तमोत्तम धार्मिक कार्य सम्पन्न करते रहना चाहिए।
उत्तम धार्मिक कार्यों को अंजाम देते हुए यदि लोकपवाद का शिकार बनना पड़े, फिर भी निर्धारित कार्य सफलता के साथ सम्पन्न करने का अभ्यास सदैव करते रहना चाहिए । समस्त संसार के प्रशंसोद्गार, गुणगान व जयजयकार के प्रति महात्मा प्रायः उदासीन होते हैं। बल्कि वे उसे सिर्फ इतना ही महत्त्व देते हैं कि गृहस्थों को हमेशा अपना फर्ज निभाना चाहिए और उनके हृदय में स्फुरित शुभ विचार ही महज उनके मन में मेंरे प्रति रही अनन्य श्रद्धा व सम्मान के प्रतीक हैं। गुरु जी अपनी
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