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२२. सद्गुरु के प्रति
प्रशस्त राग
आधुनिक समय में धर्म स्नेह की अत्यंत आवश्यकता है। कारण वीतराग अवस्थायों ही एकदम प्राप्त नहीं होती। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
सुरत दिनांक : ८-२-१९१२
आधुनिक समय में धर्म स्नेह की अत्यंत आवश्यकता है। कारण वीतराग अवस्था यों ही एकदम प्राप्त नहीं होती।
धर्म स्नेह के सोपान पर कदम रखते ही धर्माचरण करने की मा प्रतिदिन वृद्धिगत होती है। धर्म-प्राप्ति निमित्त धर्मीजनों पर ग्नेह करते करते वीतगग के अंतःप्रदेश में उतर (प्रवेश कर सकते है।
धार्मिक-प्रवृत्ति के मनुष्य को निहार, जिसके हृदय में ग्नेहभाव की वृद्धि नहीं होती अथवा प्रेमभाव जागृत नहीं होता, ऐसा मनुष्य धर्म के श्रेष्ट सोपानों पर कदम रखने का अधिकारी कदापि नहीं बन सकता । संसारी मगे सम्बन्धी व रिश्तेदारों के प्रति जो प्रेम होता है यदि उससे अधिक प्रेम जिसके मन में अपने गुरुदेव के प्रति नहीं है: निम्मंदेह वह धर्म के उच्च (श्रेष्ट) मार्ग को प्राप्त कर नहीं सकता।
यदि इस संसार में गग-अनुगग किये बिना रह नहीं सकते तो अपने गुरुदेव के प्रति गग-अनुगग की भावना में ग्त रहो । कारण सदगुरू के प्रति गग-अनुगग रखने से अन्य वस्तुओं के प्रति रही गग-अनुगग की भावना क्षय होती है और कालान्तर से धर्म उद्विष्टों के प्रति वही भावना जागृत होती है और अंत में अंतर में स्थिरता धारण करने से अप्रमत्तावस्था की प्राप्ति होती है। ठीक वैसे ही आत्मा केवलज्ञान के योग्य ऐसे शुक्न ध्यान का ध्याता बन, दसवें गुणस्थानक में रागअनुराग का सर्वस्वी क्षय करता है।
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