Book Title: Path Ke Fool
Author(s): Buddhisagarsuri, Ranjan Parmar
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 81
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२. शुभ अध्यवसाय शुभ या अशुभ कर्म अथवा देहादि की मूल जड़ शुभाशुभ अध्यवसाय हैं, अतः अशुभ अध्यवसायों का परित्याग कर नित्य शुभ अध्यवसाय करने चाहिए। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी पादरा दिनांक : २८-२-१९१२ आत्मा के गुणों में सदैव रमणता करने से उसका जो वीर्य परमव में परिणमित हुआ है, वह टल कर...अपने प्रवाह से दूर होकर अपने ही शुद्ध भाव में परिवर्तित होता है। आत्मस्वरूप मे रंगने का समरस होने का वीर्योल्लास ज्यों-ज्यों वृद्धिगत होता है त्यों-त्यों आत्मवीर्य की निरंतर वृद्धि होती है और कर्म-प्रकृति का अपवर्तन होता है व शुभ कार्य का उद्वर्तन। वैसे ही अशुभ कर्म का भी शुभ कर्म में संक्रमण होता है। आत्मा के असंख्य प्रदेशों में व्याप्त ज्ञानादि गुणों का एकस्थिरोपयोगपूर्वक ध्यान-धारणा करने से आत्मा शीघ्र उज्जवल बेनती है। उसी प्रकार परभाव में परिवर्तित आत्मवीर्य स्वभाव परिणति के रूप में परिणत होता है। __ आत्मा के स्वरूप का विचार करते समय ध्याता, ध्यान व ध्येय की एकता के स्थिर होने पर उसमें रत्नत्रयी का अंतर्भाव होता है। आत्मा का शुभ परिणाम रूप शुभ अध्यवसाय स्वंय अशुभ पुद्गल रूपी पाप समूह के साथ जुड़ कर पाप पुद्गलों को ग्रहण कर आत्मप्रदेश के साथ क्षीरनीर वृत्ति से परिणत करता है। अर्थात् पापदल को दूर कर देता है। अशुद्ध अध्यवसाय एवं संकल्प करने से स्व-पर जीवों का नुकसान कर सकते हैं। अतः अशुभ अध्यवसायों का परित्याग कर नित्य शुभ अध्यवसाय करने चाहिए।शुभाशुभ अध्यवसाय में वस्तुतः आत्म-वीर्य शुभ-अशुभ रूप में परिवर्तित ६२ For Private and Personal Use Only

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