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३५. मौन की महिमा
मौन धारण करने के उपरांत भी जो सद्गुणों का उपार्जन करता है। निस्संदेह उसके गुणों की मीठी महक बिना कुछ कहे ही निरंतर सर्वत्र प्रसारित होती रहती है। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
पादरा दिनांक : ७-३-१९१२
विविध प्रकार की भाषादि पर पांडित्य प्राप्त कर जो मनुष्य अहंकार के सिंहासन पर आरुढ हो जाते हैं । वास्तव में वह मनुष्यत्व के लिए सर्वथा अयोग्य है। किसी भी तरह से दूसरों को नीचा दिखाकर अपना उत्कर्ष साधने का जो प्रयत्न करता है वह बुझने के लिए तत्पर दीपक को टिमटिमाती रोशनी जैसा है। जिसके मनमस्तिष्क में दूसरों का उत्कर्ष...प्रगति कतई नहीं सुहाती निस्संदेह उसकी पंडिताई को खोखली समझनी चाहिए।
अध्यात्मयोग में अहर्निश रमणता करनेवाले की बाह्य विद्वता सफल होती है। जिसकी दृष्टि प्रशस्य प्रेममयी नहीं हो पायी, उसके नैनों में पल-प्रतिपल राग-द्वेष का विकार तरंगित रहता है।
जिसके मन में निजात्मा के ज्ञानादि गुण उजागर करने की भावना पखान नहीं चढ़ी, ऐसा मूढ जीव प्रायः दया का पात्र बनता है। जिसमें श्रावक के इक्कीस गुणों का प्रादुर्भाव हुआ नहीं है, ऐसे श्रावक को साधु आदि दूसरों की निंदा में न फंस उपर्युक्त गुणों को आत्मसात् करना चाहिए।
साधुजनों को अपने आचार, आचरण व सुविचारों से पृथ्वी को सुशोभित करनी चाहिए। उत्तम चारित्र व विशिष्ट मौनावस्था से भी दूसरे लोगों पर जो असर होती है, वह उत्तम चारित्र विहीन अवस्था विशिष्ट प्रकार के चारित्रोपदेश से भी नहीं कर सकती
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