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३६. हृदय-प्रेम का
पद्मसागर
किसी भी साधु अथवा श्रावक के मन में दूसरे का खराब करने की भावना या प्रवृत्ति जग पडे तो ऐसा साधु अगर श्रावक श्री महावीर प्रभु के मार्ग से च्युत...विचलित होता है। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
पादरा दिनांक : ८-३-१९१२
द्वेषाग्नि जहाँ उत्पन्न होती है वह उक्त स्थान को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। जो मानव द्वेषाग्नि का सेवन करता है वह निज आत्मा के गुणों को उसमें भस्मीभूत कर देता है। जबकि जो द्वेषाग्नि को शांत कर देता है वह मानव-जाति का कल्याण करने में समर्थ बनता है।
___ दुर्गुणों पर विजयश्री प्राप्त किये बिना मानव सही अर्थ में शूरवीर नहीं कहलाता। विषय-वासनादि, ठीक वैसे ही अनेक प्रकार के स्वार्थ रूपी दानव को जो ज्ञानाग्नि में बलिदान देते हैं। वास्तव में उन्हें ही भावयज्ञ के कर्ता एवम् सूत्रधार मानना चाहिए।प्राणधारी पशुओं की जो यज्ञ में आहुति देते हैं, उन्हें नराधम....राक्षस की उपमा न दें तो भला और किसे देनी चाहिए?
अशुभ स्वार्थ-प्रवृत्ति का त्याग किये बिना दया व दान नहीं कर सकते।जितने अंश में दान कर सकते हैं उसी के अनुपात में त्याग व ममता का परित्याग कर सकते हैं।वैसे ही अशुभ इच्छाओं का त्याग किये बिना श्रेष्ट पद कदापि प्राप्त नहीं कर सकते।
जो मानव अपने हृदय-सरोवर को शुभेच्छाओं की जल-धारा से अथाह....आकंठ भर देता है, उसके आत्मा में सद्गुणों के कमलदल विकस्वर हो उठते हैं। प्रबल पुरुषार्थ के बल पर अशुभ भावनाओं के साथ तुमुल युद्ध कर साधुजनों को महावीर योद्धा के रूप में अपना नाम उज्ज्वल बनाना चाहिए।
किसी भी साधु अथवा श्रावक के मन में दूसरे का खराब करने की भावना
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