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४३. त्रिवेणी
मन. वचन व काया की शक्ति का विभाव अर्थात् राग-द्वेषादि भाव आत्म सम्मुख प्रकट होवें तो संसार की वृद्धि होती हैं, अतः त्रियोग (मन-वचन-काया) की शक्तियों द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वरूप में परिणत होना चाहिए। -श्रीमद् बुद्धिसागरमूरिजी
पादरा दिनांक : २०-३-१९१२
काया के बनिम्बत वाणी का कार्य शीघ्रगामी होता है और वाणी के बनिम्बत मन का कार्य अत्यंत वेग से होता है। जबकि मन के बनिम्बत ज्ञान का कार्य अत्यधिक वेग से होता है। वस्तुतः काया की तुलना में वाणी एवं वाणी की तुलना में आत्मा की शक्ति व क्षमता अनन्य असाधारण होती हैं।
सर्व शक्तियाँ अपने-अपने स्थान पर बलशाली हैं। तात्पर्य यह कि मन, वचन एवं काया के योग बिना आत्म-धर्म की साधना नहीं हो सकती। अतः मन, वचन, व काया की शक्ति को आत्माभिमुख करनी चाहिए। आत्मा के ज्ञानादि गुणों की शुद्धि के लिए त्रियोग की अत्यंत आवश्यकता है।
मन, वचन व काया के औदयिक भाव भी अन्य जीवों के लिए साधन सापेक्षा से धर्म हेतु परिणमित होते हैं। मन, वचन तथा काया के कारण स्व एवं पा को जो लाभ होता है, उसका वर्णन करते पार नहीं आता।
मन, वचन, व काया की शक्ति का विभाव अर्थात गग-द्वेषादि भाव आत्म सम्मुख प्रकट होवें तो संसार की वृद्धि होती है। अतः त्रियोग की शक्तियों द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वरूप में परिणत होना चाहिए।
जो त्रियोग का सदुपयोग नहीं करते वे अपनी आत्मा, टीक वैसे ही अन्य जीवों का हित साधने में कभी शक्तिमान नहीं होते। लक्ष्मी आदि के माध्यम से जो उत्तम कार्य नहीं हो सकता सचमुच वह कार्य त्रियोग-साधना से हो सकता है।
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