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त्रियोग में आत्म-वीर्य की परित करना ही प्रधान धर्म है। रे, वियोग की शक्तियों के सदृश कोई व्यवहारिक ऋद्धि नहीं है। परिणामतः मन, वचन तथा काया को योग-शक्तियों को कमा कर....सधा कर उन्हें शुभ मार्ग पर उपयोग करने का अभ्यास करना चाहिए।
आत्मा की त्रियोग रूपी शक्तियों का पदपयोग करनेवाले इस संसार में धर्मप्रचार करने में मदैव शक्तिमान होते हैं। आत्मा के तीन योग से उसके शुद्ध धर्म की प्राप्ति करने हेतु व्वहारनय की अपेक्षा ये रत्यर्ग मार्ग व अपवाद मार्ग का अवलम्बन करना चाहिए । व्यवहार नय वनिश्चय नय कथित आत्म-शक्तियों का गदेव प्रकाश फैलाना चाहिए।
उत्साह व उमंग से शक्तियों में वृद्धि होती है। अतः आलम्यादि का परित्याग कर जिस तरह आत्म-शक्तियाँ प्रकट हो. उस प्रमाण में तीन योगों में प्रवृत्ति करनी चाहिए।
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