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यदि भारतवासी आर्य जैन अब भी स्वार्थ त्याग कर स्व तथा जगत् के उद्धार हेतु जागृत नहीं होगा तो वह मनुष्य श्रेणी में गिने जाने के योग्य भी नहीं रहेगा।
जो कोई जैन धर्म का उद्धार करने की भावना रखता हों, उन्हें नये पंथ की स्थापना करने की कल्पना तक अपने मन में नहीं करनी चाहिए। कारण पंथ निकालनेवाले की दृष्टि संकुचित और विचारधारा संकीर्ण होती है। बिना विशाल दृष्टि अपनाये-जिसका क्षेत्र विराट् है ऐसे जैन धर्म का अधिकारी नहीं बन सकता। यहाँ विशेष रूप से इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि विशाल दृष्टि का अर्थ जैन सिद्धांतो से विपरीत मनकी मिथ्या भ्रमणा के रूप में कोई न ले। बल्कि सदैव उदारता का परिचय अन्यजनों को धर्म की अपूर्व भेंट प्रदान करनी चाहिए। हमारे धर्म में सर्व सुखों का संचय पयप्ति मात्रा में है। अतः जैनियों को अपने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार उदार भाव से करना चाहिए।
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