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हुआ होता है। जबकि शुभ अध्यवसाय में वास्तव में आत्म-वीर्य शुद्ध-विशुद्ध रूप में परिवर्तित होता है। शुभ या अशुभ कर्म अथवा देहादि की मूल जड शुभाशुभ अध्यवसाय हैं।
प्रायः अशुभ में से शुभ व शुभ में से शुद्ध में प्रविष्ट होने का प्रयत्न करना चाहिए। ठीक उसी तरह यदि किसी को शुभ अध्यवसाय होते हो तो उसमें विघ्न नहीं डाले।शुभ अध्यवसाय के बनिस्बत भाव संवर रूप शुद्ध अध्यवसाय कई गुना उत्तम व श्रेष्ठ हैं।
आत्मा को सम्यक् मान आत्मा के स्वरूप में परिवर्तित करने से परभाव में परिणत अनंत वीर्य भी पुदगल भाव से विमुक्त हो, अपने शुद्ध स्वरूप में परिणत होता है। शुभ और अशुभ संकल्प-बल से शुभाशुभादि वस्तु पर वस्तु संयोगी वीर्य होता है तथा आत्मा के शुद्ध-विशुद्ध स्वरूप में क्रीडा करने से उस से जुडे कर्म दूर होते हैं। फसतः आत्मा का शुद्ध पर्याय उत्पन्न होता है। और उसी शुद्ध पर्याय को मोक्ष रूप कहा जाता है।
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