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गुणस्थानक या उपरिरथ नय शुद्ध कहे जाते हैं। लेकिन यदि नीचे की अपेक्षा न लेने में न आवें तो किस अपेक्षा से शुद्ध कहे जाय?
__ नय के परम्परिक सापेक्षता से प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को जानना...पहचानना चाहिए। धर्माचरण करते समय भी नय की अपेक्षा व स्वाधिकार से भेद पडते हैं। अमुक नय कथित धर्म की क्रिया या रुचि होने से दूसरे नय कथित धर्मक्रिया अथवा रुचि का खंडन नहीं होता।
अतः हे चेतन! नय के सापेक्ष वर्तुल में समाहित ऐसे सर्व धर्म के ग्वाप रूपी जैन धर्म की प्रमादावस्था त्याग कर अप्रमतयोगपूर्वक आगधना करो। कारण तुम्हारे में अस्ति रूपी रहे ज्ञानादि अन्यवय धर्म की आगधना करने पर भी नारित रुची स्थिर व्यतिरेक धर्म की सहज आगधना होती ही है
हे चेतन! शुद्धोपयोग समाधि में तुम निरंतर केलि-क्रीडा करते रहो। राग व
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