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२९. अनेकान्त दृष्टि
नय के पारस्परिक सापेक्षता से प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को जानना... पहचानना चाहिए। धर्माचरण करते समय भी नय की अपेक्षा व स्वाधिकार से भेद पड़ते है। अमुक नय उचित धर्म की क्रिया या रुचि होने से दूसरे नय उचित धर्म क्रिया अथवा रुचि का खंडन नहीं होता। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
पादरा दिनांक : २१-२-१९१२
रमणता करने से मोक्षगामी बनती है।
हे आन्मन ! बाह्य जो सर्व वस्तुएँ विद्यमान हैं वह तुम नहीं हो और ना ही उनमें इष्टत्व है। अपने मन से की गयी इष्ट-अनिष्ट की कल्पना मात्र से बाह्य वस्तुओं के जाल में कभी फंसना नहीं चाहिए...उनके प्रति आक्ति -लगाव नहीं रखना चाहिए। बल्कि द्रव्यानुयोग को आत्मसात कर हे चेतन ! तुम्हें चरणकरणानुयोग की धर्म-प्रवृत्ति अपनी क्षमता के अनुसार करनी चाहिए।
हे आत्मन ! तुम्हें अपने शुद्ध सत्तागत धर्म को उजागर कर उसमें स्थिर उपयोग धारण करने की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह आत्मा में रमणता कर अशुद्ध धर्मकरण को शुद्ध धर्मकरण के रूप में प्रवर्तित करना चाहिए।
__हे आत्मन् ! तुम्हें मन, वचन, व काया की चंचलता दूर कर आत्मवीर्य की स्थिरता करनी चाहिए। इसका सदैव ध्यान (उपयोग) रखना चाहिए कि वैसे ही अपने अधिकार धर्म द्वारा ऊर्ध्य व अधो (नीचे का) धर्म का कदापि खंडन नहीं होना चाहिए और ऊपरी तौर पर नय कथित धर्म की अपेक्षा से अधो-अधो नय कथित धर्म की अशुद्धतरत्व व अशुद्धतमत्व को परिलक्षित कर सापेक्ष नयवाद धर्म प्ररूपन का परित्याग कर एकांतिक उपदेश नहीं देना चाहिए।
वास्तव में नय अमुक अपेक्षा से विचारवाली एक वैचारिक दृष्टि है इसलिए उनको नयाभास के रूप में ग्रहण करना नहीं चाहिए। नीचे की अपेक्षा ऊपर के
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