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२८. व्यवहार और
निश्चय नय
व्यवहार व निश्चय नय को स्वीकार किये बिना सम्यकत्व की प्राप्ति नहीं होती। व्यवहार कारण है और निश्चय कार्यभूत है। व्यवहार नय निर्मित कारण है, जब कि निश्चय नय उपादान कारण है। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
इटोला दिनांक : १८-२-१९१२
व्यवहार व निश्चय नय को स्वीकार किये बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती।
सूर्य और चंद्र की भाँति पूरे ब्रह्माण्ड में व्यवहार व निश्चय नय भी सदा-सर्वदा विजयवंत हैं। व्यवहार कारण है और निश्चय कार्यभूत है। आत्मा के अध्यवसाय की शुद्धि में व्यवहार नय निमित्त कारण है। जो मनुष्य व्यवहार नय कथित धर्म का उत्थापन-खंडन करता है, वह निस्संदेह जैन शासन का उत्थापन करता है। निश्चय नय प्राप्त चेतना के शुभादि अध्यवसाय से पतित हुए प्रसन्नचंद गजर्षि की तरह व्यवहार नय आलम्बन प्रदान कर धर्म में पुनः स्थिर-दृढ करता है।
अशुभ व्यवहार से शुभ व्यवहार और शुभ व्यवहार मे शुद्ध व्यवहार में प्रवृत्ति करने हेतु उपाय करने चाहिए। व्यवहार नय निमित्त कारण है. जब कि निश्चय नय उपादान कारण है। आत्मिक गुणों को प्रकट करने हेतु क्रिमी भी निमित्त कारण स्वरूप व्यवहार का अवलम्बन किये बिना किसी का भी छूटकाग नहीं होता। गृहस्थावस्था में रहे तीर्थंकर भगवान भी निजात्मा के गुण प्रकट करने हेतु साधु-दीक्षा रूपी व्यवहार को स्वीकार करते हैं।
मन, वचन व काया के योग की गुप्ति करने हेतु जो भी बाह्य प्रयत्न किये जाते हैं, वह व्यवहार है। तेरहवें स्थानक पर पहुँचे तीर्थंकरदेव भी व्यवहार धर्म को चलाते हैं। केवलज्ञानी भगवान आहार-पानी का उपयोग करते हैं. उपदेश प्रदान करते हैं और तीर्थ की स्थापना करते हैं, यह सब व्यवहार है।
व्यवहार कथित जिन किन्हीं कार्यों में प्रवृत्त होना हों. उसके पूर्व 5. गम्बन्ध
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