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२७. शान्त सुधारस
आत्मा को परमात्मा के सम्मुख करना चाहिए। सूर्य के साथ सम्बन्धित कमल जिस तरह जल में निर्लेप होता है। ठीक उसी तरह परमात्मा की ओर स्थिर दृष्टि रखनेवाला आत्मा भी संसार रूपी जल में निर्लेप रह सकता है। --श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
करजण
भक्ति-सागर मे गोता लगाते रहने से परमात्म-गुणों के साथ पूर्णतया लीनता हो जाती है। ऐसे अवसर पर मानव को शांत सुधारस के स्वाद का कुछ (अम्पष्ट) आभास होता है।
आत्मा को परमात्मा के सम्मुख करना चाहिए। सूर्य के साथ सम्बन्धित कमल जिस तरह जल में निर्लेप...निर्दोष-निष्कलंक रह सकता है।टीक उसी तरह परमात्मा की ओर स्थिर दृष्टि रखनेवाला आत्मा भी संसार रूपी जल में निर्लेप रह सकता है।
आत्मा का परमात्मा के साथ प्रेम-गठबंधन दृढ होते ही उसकी मलिनता दूर हो जाती है। वस्तुतः परमात्मा के प्रति रही अनन्य प्रीति आत्मा को सर्वश्रेष्ट अवस्था पर पहुँचाने में समर्थ होती है।
परमात्मा के साथ पवित्र प्रेम से प्रचुर सम्बन्ध प्रस्थापित किये बिना मुक्तिसोपान पर कदापि आरोहण नहीं होता। साथ ही परमात्मा के गुणों की भावना में आंकठ डूबी आत्मा अपने भीतर सत्तारूढ़-स्थिर रहे गुणों को प्रकट कर दें इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात ही नहीं है।
परमात्मा के साथ प्रायः शुद्ध प्रेम भाव रख, अशुद्ध प्रेम को मिटा देना चाहिए। दुनिया के सभी जीवों के प्रति जब शुद्ध प्रेम विकस्वर होवे तब समझना चाहिए कि परमात्मा के साथ शुभ सम्बन्ध प्रस्थापित हुए हैं।
परमात्मा की भक्ति करनेवालों के दिलोदिमाग में निखिल विश्व के प्रति शुद्ध
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