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२६. सहजानन्द की
कुंजी-शुभ ध्यान
असार संसार में मानव-जीवन सदृश अमूल्य पाथेय पाकर मानव को मोक्ष मार्ग की ओर प्रयाण करना चाहिये। वैसे आत्मा के सहजानन्द गुणों की प्राप्ति हेतु आत्मिक गुणों का उपासक बनना आवश्यक है। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
करजण दिनांक : १२-२-१९१२
मानव बिना किसी कारण राग-द्वेष निरंतर बढ़ता रहे, ऐसी बातें कर अपने जीवन का अधिकांश समय व्यर्थ गँवाता है। वस्तुतः आर्तध्यान व गैद्रध्यान में वृद्धि हो, ऐसी बातें करते रहने से आत्मिक गुणों का आच्छादन होता है।
जो आत्मिक शक्ति साधने हेतु श्रमण बने हैं, उन्हें व्यर्थ ही निंदा कर अपना समय बेकार नहीं गँवाना चाहिए। बल्कि अपना आचरण पवित्र रख, अन्य लोगों को भी ऐसा करने की सीख देनी चाहिए।
भाव को प्रायः परवस्तु मान कर उपशम....इंद्रिय-निग्रह आदि भावों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। जिन स्थानक पर अथवा जहाँ आश्रय लेने से मानसिक चंचलता दूर होती हो, ऐसे उपाय खोजने चाहिए। जिनकी संगति से दुर्गण दूर और सद्गुण सेवन करने की भावना जागृत हों, प्रायः ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए।
श्रीमद यशोविजयजी महाराज ने 'सो कहीए सो पूछीए, तामे धारीए रंग; या ते मिटे अबोधता, बोध रूपे रहे मंग।' दोहे में कर्तव्य कार्य कहने तथा पूछने का सुंदर उपदेश दिया है।
असार संसार में मानव-जीवन सदृश अमूल्य पाथेय पाकर मानव को मोक्षमार्ग की ओर प्रयाण करना चाहिए।
प्रमाद को कभी बुलाने-न्यौता देने की आवश्यकता नहीं होती। बल्कि वह तो बिन बुलाये मेहमान की तरह आ जाता है। जबकि उपशमादि धर्म प्राप्त करने के लिए प्रायः कठोर श्रम-उद्यम करना पडता है। दुगर्ण तो राह चलते काँटे की तरह
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