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२३. साधु-सेवा
सुख सम्पदा
साधु की संगति एवं सेवा से वीतराग प्रभु के मन्दिर में सहज प्रवेश मिलता है। साधु परमार्थ के लिए देह धारण करते हैं अतः वे कल्पतरु चिंतामणि और कामधेनु से भी बढ़कर है। -श्रीमद् बुद्धिसागरमूरिजी
सायण दिनांक : १-२-१९१२
याधु-संतों की सेवा करने से आत्मा की ऊर्ध्वगति होती है। साधु की सेवा करने से उनके अनन्य गुणों का लाभ मिलता है। उनकी संगति से नाना प्रकार के पापाचरण दूर होते हैं। साथ ही उनकी सेवा से इष्ट फल सिद्धि होती है।
___ यसाधु की निरंतर सेवा करनी चाहिए। माधवर्ग की प्रेमभाव से सेवा करते समय कभी निरुसाहित नहीं होना चाहिए। मन में अमुक प्रकार का क्षणिक स्वार्थ धारण कर साधु की सेवा करने के बजाय प्रायः निष्काम भाव से सेवा करने से कई गना अधिक लाभ मिलता है।
दुष्ट-दुर्जन लोगों से साधुओं की रक्षा करने से साधुवर्ग की प्रगति होती है। आबादी, पात्र, आहार-पानी, पुस्तकादि दान के माध्यम से भी साधु की सेवा कर सकते है।
__ यदि कोई साधु कुसाधु बन जाय तो इससे सुसाधु के प्रति रही श्रद्धा का त्याग नहीं करना चाहिए । महागज श्रेणिक व श्रीकृष्ण ने साधुवर्ग की अनन्य भक्ति-सेवा की थी। सच्चे मन से यदि साध की सेवा की जाय तो वह कभी निष्फल नहीं जाती। अहर्निश साधु-मेवा करते रहने से असंख्य जीव पापकर्मों का क्षय कर मोक्ष-पट के अधिकारी बने हैं, बनते हैं और बनेंगे।
विश्व में गंगा नदी. कल्पवृक्ष एवम चिंतामणि रत्न आदि से भी अधिक महिमा साधु की है। अतः साधु की सविधि श्रद्धाभाव से सेवा करनी चाहिए ।
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