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वैसे देखा जाय तो सुविचार के बजाय कुविचार में विशेष बल होता है। और वह सुविचार को परास्त करने सर्वस्वी शक्तिमान होता है। अतः यदि एक बार कुविचारों को नेस्तनाबूद कर दें तो मन में जो भी संग्कार सुषुप्तावस्था में विद्यमान होते हैं, वे सुविचारों की संगति अथवा सम्बन्धित कारण प्राप्त हो जाने की वजह से पुनः जागृत-सजीवन हो जाते हैं। अतः मन में धर्म सम्बन्धित विचारों को हर क्षण हर पल अहर्निश दोहग कर मोह एवं कुविचारों के संस्कारों को जडमूल से उखाड फेंकने चाहिए।
मन को प्रायः शुभ व शुद्ध विचारों में पिरोये रखने से वह दानव की तरह उत्पात मचाने में समर्थ नहीं होता।
मन-सागर में विचारों की जो-जो तरंगे उछल कूद कर रही हों, उनके प्रति उपेक्षा भाव रखना चाहिए और कुविचारों को उठते ही कुचलना चाहिए।
__ मन ही मन एक घंटे तक किये गये भावनायुक्त शुभ विचार की जितनी कीमत है, उसकी बगबरी करने में कोई अनुष्ठान भी समर्थ नहीं होता । इस तरह संभव है शुभ विचारों की भावना का फल यकायक दृष्टिपथ में न आये। लेकिन इससे उक्त भावना से कदापि दूर नहीं जाना चाहिए।
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