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निन्दा-स्तुति से तनिक भी विचलित-प्रफुल्लित नहीं होते। वे निष्काम भाव से अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होते हैं। और अपने धार्मिक कर्तव्य निभाने से च्युत नहीं होते।
लोगों के मान-सम्मान की कामना कर प्रायः उपदेश प्रदान व ग्रंथ-लेखनवाले कभी-कभार मान-सम्मान न मिलने पर मन ही मन आघात अनुभव करते हैं और शुभ-कार्यों से दो कदम दूर रहते हैं। जबकि निष्काम भाव से धार्मिक कार्यों को अंजाम देनेवाले महात्मागण कभी दुःखी नहीं होते और ना ही शुभ कार्यों से दूर रहते हैं।
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