Book Title: Path Ke Fool
Author(s): Buddhisagarsuri, Ranjan Parmar
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 52
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७. दानधर्म-मुक्ति सोपान दान से तीर्थंक र पद भी प्राप्त होता है। केवल ज्ञान प्राप्ति के अनन्तर भी तिर्थकर देव उपदेश स्वरूप दान धर्म का सेवन करते हैं। इस तरह तीर्थकर स्वयं भी दान धर्म सम्बन्धित अपना कर्तव्य अचूक निभाते हैं तो सामान्यजनों को भला इस सम्बन्ध में क्या कहना? -श्रीमद् बुद्धिसागरमूरिजी सुरत दिनांक : १-२-१९१२ दानधर्म के माध्यम से मानव उच्च गति प्राप्त कर सकता है। ममत्व का त्याग किये बिना तन, मन, धन व वाणी का दान असंभव है। स्वयं की वस्तुओं को अन्यजनों की भलाई के लिए उपयोग में लाना-खर्च कगता ही प्रथम दानधर्म, परोपकार धर्म या सेवाधर्म है। प्रायः द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुसार ही दान के भेदों का सेवन करना चाहिए। अरे, दान करने में भी विवेक की आवश्यकता है। संसार में मनुष्य जानेअनजाने ही सही दान स्वरूप प्रदत्त धर्म सम्बन्धित विविध प्रवृत्तियाँ करता है। जब कि इसे अपना आद्य कर्तव्य समझ अथवा किसी तरह का प्रति फल पाने की लालसा का त्याग कर दान देने की आदत डालनी चाहिए। अमरिका, यूरोप आदि विविध राष्ट्रों में दान प्रदान करने की विभिन्न प्रणालिकाएँ प्रचलित हैं। लेकिन आर्यभूमि में दान देने की प्रणालिका में समाहित गुप्त रहस्य उच्च कोटि के ज्ञात होते हैं। विश्व में बिना दानधर्म के किसी का चल नहीं सकता। जिस तरह शरीगदि के पोषण हेतु कुछ भी लिये बिना नहीं चल सकता टीक उसी तरह किसीको कुछ दिये बिना भी चल नहीं सकता। आदान-प्रदानक्रिया तो प्रकृति का अलिखित एकमेव नियम हैं। अनजाने में एकेंद्रिय जीवों के देह का भी दान होता है। दान से परस्पर एकदूसरे का उपकार होता है। वास्तव में बचपन से ही दान प्रदान करने की आदत डालनी For Private and Personal Use Only

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