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१०. शुभकर्म
विकास का स्वर्ण-सोपान
आहिस्ते-आहिस्ते नियोजित कर्मयोजना को पूरा करते रहो। अच्छे कार्यों में विध्न आते ही रहते हैं। उक्त विघ्नों से कदापि भवभीत न हों। विघ्नों के निवारणार्थ संघर्ष करते रहो। श्रीवीर प्रभु के भक्त संघर्ष के काँटो को दूर कर सुखशान्ति के फूल प्रस्फटित करते हैं। -श्रीमद् बुद्धिसागरसरिजी
वलसाड दिनांक : २२-१-१९१२
हे चेतन! संसार में रहे लोगों के सम्पर्क...सम्बन्ध में आये बिनाछुटकारा...मुक्ति नहीं है। इसी तरह स्वयं के विचार...मत से भिन्न मत...विचार रखनेवाले लोग भी तुम्हें इस धरती पर बारी-बारी से मिलते ही रहेंगे। अतः यदि तुम अन्यजनों के संसर्ग...सहवास से ऊब जाओगे तो भी तुम्हाग कुछ चलनेवाला नहीं है।
__ ऐसी परिस्थिति में तुम्हें चाहिए कि तुम जब अन्य मतावलम्बियों के सम्पर्क...संसर्ग में आओ तब उन्हें अपने सुविचार...मत से अवगत करो और उनके समागम का तिरस्कार न करते हुए प्रायः उन्हें उच्च बोध प्रदान करते रहो। सदैव विवेक-दृष्टि का उपयोग कर परम्पर कल्याणकारी प्रवृत्तियों को कार्यान्वित करते रहो। साथ ही जिन विषयों की बाबत में भूल होती हो, दुबारा उन भूलों की पुनरावृत्ति न हों; इसकी सावधानी बरतते रहो। उसी तरह जिन दोषों का सेवन करते हों उनको छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए और प्रतिक्रमण कर पुनः अग्रसर होने का उपक्रम करना चाहिए।
हे चेतन! जब तक तुम इस शरीर में वास करते हो तब तक तुम्हें प्रायः इसी प्रकार का आचरण करना चाहिए। यदि कभी कर्म के जोर के आगे तुम्हारा बस न चले और तुम्हें पीछेहट करनी पडे तब भी अहर्निश अग्रसर बढ़ने के मार्ग को भूल कर भी कभी परित्याग नहीं करना चाहिए; बल्कि निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए।
निर्धारित मार्ग से गुमराह होने पर तुरंत टोकर लगती है। अतः उपयोग से ही धर्म सूक्ति को अक्षरशः सत्य मान, सभी दृष्टि से विचार कर तुम निरंतर आगे
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