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६. गुरु भक्ति
चिन्तामणिरत्न
श्रीगाँव दिनांक
सद्गुरु की भक्ति कल्पतरू तुल्य है। परन्तु ऐसे विरले ही गुरु भक्त होते हैं. जो श्रद्धापूर्वक बिना ननुच किये गुरुआज्ञा को सर्वोपरि मानते हैं । विडम्बना ना यह है कि अधिकांश शिष्य गुरु के अवगुणा को ढूँढने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। , यदि शिष्यगण गुरु पर अखंड निरूपाधिक श्रद्धा र खेंगे तो उनका कल्याण निश्चित है। -श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी
गुरु-भक्ति करते हुए यदि अनेकविध विघ्न व आपत्तियों का पहाड़ टूट पडे, फिर भी भक्तजन गुरु-भक्ति से विमुख नहीं होते...परामुख नहीं होते।
शिष्यों को प्रायः निष्कामवृत्ति से गुरु-सेवा करनी चाहिए। यदि शिष्य निर्धार करे तो गुरु-आचरण से बहुत कुछ बोध-प्रतिबोध आत्मसात कर सकता है। लेकिन स्वच्छंदी शिष्यों को प्रायः गुर्वाज्ञा प्रतिकूल प्रतीत होती है और गुरु का उपदेश भी उनके लिए विपरीत परिणाम देने वाला प्रतीत होता है।
गुरु-भक्ति एक प्रकार से आवश्यक कार्य होने के कारण शिष्यों को प्रायः उसका अनुसरण करना चाहिए।
जिसका ध्यान गुरु के गुणों मे नहीं रहता और जो सदैव गुरु-निंदा करने से तनिक भी नहीं अघाता, ऐसा शिष्य गुरु-भक्ति से सदैव कोसों दूर रहता है । फलतः वह गुरु-भक्त कहलाने का अधिकारी नहीं रहता | गुरु के वचन व वाणी के प्रति जिसमें श्रद्धा-भाव नहीं है. गोसी अश्रद्धा वाला शिष्य यदि बीस-पच्चीस वर्ष तक गुरु-मान्निध्य में रह जाय तो भी वह गुरु-उपदेश को अपने हृदय में उतारने के योग्य कदापि नहीं बन सकता।
गम के सान्निध्य में रहने वाले तथा गुरु द्वारा दीक्षित (मुंडे हुए) सभी गुरुभक्त ही होते हैं यो बान नहीं है। भगवान जब समवसरणारुढ होकर उपदेश प्रदान करते थे तब श्रद्धालु व पाखण्डी दोनों उपदेश श्रवण करते थे। लेकिन पाखण्डी तीर्थकर भगवान के उपदेश का मिथ्या निरूपण करते थे... गलत अर्थ लगाते थे, इसमें
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