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हे चेतन! धर्म-प्रवृत्ति मार्ग स्वरूप व्यवहारमार्ग में तुम निरुपाधि अवस्था में रह सको उसी के अनुरुप प्रायः प्रवृत्तिमय बने रहो और मन-मस्तिष्क में नित्य प्रति सहज समाधिस्थ भावना रखो। ठीक वैसे ही प्रयत्नों की पराकाष्टा करने के उपरांत भी कर्म-संयोग से प्राप्त आधि, व्याधि और उपाधियाँ, जो तुम्हारा पीछा नहीं छोडें...नामशेष न हों, उन्हें शांतिपूर्वक सहन करने की मानसिक-शूरता धारण करो।
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