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प्रस्तावना
देवभद्रसूरि के सिरि पासनाह चरियं के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में लिखा गया ग्रन्थ जिसमें पार्श्व के पूर्वभवों का विस्तृत वर्णन है, हेमचन्द्र का त्रिषष्टि- शलाका - पुरुषचरिते है । इस ग्रन्थ में पार्श्व के पूर्व भवों का जो वर्णन मिलता है वह देवभद्रसूरि के ग्रन्थ में दिये वर्णन से सर्वथा मिलता जुलता है । यदि कोई भेद है तो केवल यह कि इसमें देवभद्रसूरि द्वारा दिये गए वज्रनाभ की माता के स्वयंयर का तथा वज्रनाभ के पिता के युद्ध का वर्णन नहीं है । इन दो ग्रन्थों की रचना के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में भी पार्श्व के पूर्व भवों की कथा तथा उनकी शैली निश्चित हो जाती है । तत्पश्चात् किसी लेखक ने इसमें विशेष भेद नहीं किया । सत्रहवी शताब्दि में हेमविजयगणि द्वारा लिखा गया पार्श्वनाथ चरित एक प्रकार से त्रि.. च. में दिए गये पार्श्व-चरित की प्रतिलिपि मात्र है ।
दिगम्बर परम्परा में तो पार्श्व के पूर्व भवों के वर्णन की शैली उत्तरपुराण में निश्चित की जा चुकी थी उसे ही पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में और वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित्र में अपनाई । पद्मकीर्ति ने अपना ग्रन्थ उसी शैली में लिखा है । जो परिवर्तन उन्होंने किए उनकी चर्चा ऊपर की ही जा चुकी है ।
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कमठ के पुनर्जन्म:
पार्श्वनाथ के पूर्वजन्म मरुभूति और कमठ के जीवों के क्रमशः सदाचार और अत्याचार की कहानी है । प्रत्येक जन्म में मरुभूति के जीव को कमठ के जीव के द्वेष का शिकार होना पड़ता है । कमठ का जीव पार्श्व के जीव के समान ही इस लोक में उत्पन्न होता है किन्तु अपने दुष्कृत के कारण अधिकतः तिर्यञ्च में जन्म ग्रहण कर नरकवास भोगता है । उसे छठवें भव में पुनः मनुष्य योनि प्राप्त होती है जहां वह एक म्लेच्छ का जीवन व्यतीत करता है । ग्रन्थकारों ने कमठ के जीव के जन्मों में विशेष परिवर्तन नहीं किये हैं । उसके जन्मों का जो क्रम उत्तर पुराण में दिया है वही उत्तरकालीन ग्रन्थों में पाया जाता है । यदि कुछ भेद है भी तो वह उसके दसवें भव में मिलता है जिस समय कि मरुभूति का जीव पार्श्व के रूप में उत्पन्न हुआ था । वे भेद निम्न लिखित हैं :
उत्तर पुराण के 'अनुसार दसवें भव में कमठ का जीव एक महीपाल राजा के रूप में उत्पन्न हुआ । यह राजा अपनीपत्नी के वियोग में दुखी होकर तपस्वी बना । इस राजा को पार्श्वनाथ का नाना भी कहा गया है । वन में पार्श्वकुमार की भेंट इसी तपस्वी से होती है । किन्तु पा. च. के अनुसार नौवें भव के पश्चात् कमठ का जीव चार बार तिर्यग्योनि में और चार बार नरक में उत्पन्न होने के पश्चात् केवट के रूप में और फिर एक ब्राह्मण के कुल में जन्म लेता है । यही ब्राह्मण दरिद्रता से दुखी होकर कमठ नामका तपस्वी बन जाता है। इसी कमठ के आश्रम को देखने के लिये पार्श्व वन में पहुंचते हैं ।" देवभद्रसूरि ने नौवें भव के पश्चात् कमठ का जीव तिर्यग्योनि में उत्पन्न हुआ बताया है । इस योनि में उसने कितनी बार जन्म ग्रहण किया यह देवभद्रसूरि ने स्पष्ट नहीं किया । इस योनि से निकलने के बाद ही कमठ एक ब्राह्मण के यहां जन्म लेता हुआ बताया गया है। इस जन्म में उसका नाम कमढ़ है । यही तपस्वियों के आश्रम में प्रवेश पाकर तपश्चर्या करने लगता है । इसकी घोर तपस्या की सूचना पाकर पार्श्व उसे देखने जाते हैं । त्रि. च. में देवभद्रसूरि अनुसार ही कमठ की जन्म-परंपरा का उल्लेख है । श्वेताम्बर परम्परा में लिखे गए अन्य पार्श्वचरितों में भी कमठ के इस भव का यही वर्णन मिलता हैं।
उसे तालिका रूप में दिया जा रहा हैं ।
पार्श्व के पूर्वजन्मों का विवरण जैसा कि मुख्य-मुख्य ग्रन्थो में उपलब्ध साथ में कमठ के पूर्व जन्मों का भी विवरण दिया है।
१. पर्व ९ सर्ग २. २. उ. पु. ७३. ९६ से ११८. ३. पा. च. ७. १२. ४. पा. च. ७. १३. ५. पा. च. १३. १० तथा १३. ११. ६. सि. पा. पृ. १३१. ७. भावदेवसूरी का पार्श्वनाथ चरित ५. १ से १८; हेमविजयगणि का पार्श्वनाथ चरित्र ५. ६; तथा त्रि.श. ९. २. ३१०; ९. ३. १ से १ १४ तथा ९ ३. २१६ से २१७.
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