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प्रस्तावना
उत्तरपुराण । इन दोनों ग्रन्थों में तीर्थंकरों के पूर्वजन्मों का पूर्व विकसित रूप हमें प्राप्त होता है। जिनसेन ने पार्वाभ्युदय नामका स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखा है किन्तु उसमें पार्श्व के पूर्व जन्मों का वर्णन नहीं है। आदिपुराण और उत्तरपुराण की रचना के पश्चात् तीर्थंकरों के पूर्व भवों का कथासूत्र तथा वर्णनप्रणाली दोनों ही निश्चित हो गए । उत्तरवर्ती ग्रन्थकार उसी कथासूत्र तथा वर्णनप्रणाली का उपयोग करते रहे। यह अवश्य है कि पार्श्वनाथ के जन्मों को कथानक बनाकर काव्यग्रन्थों की रचना करने वाले कवि लेखक अपनी अपनी काव्य प्रतिभा के अनुसार उस कथासूत्र में संकोच या विस्तार करते रहे हैं किन्तु उस कथासूत्र के मूल में कोई परिवर्तन नहीं किया गया । पार्श्वनाथ के पूर्व भवों का तुलनात्मक अध्ययन :
पद्मकीर्ति ने अपने पासणाह चरिउ में पार्श्व के पूर्व जन्मों का वर्णन प्रायः उसी प्रकार से किया है जैसा कि वह उत्तरपुराण में पाया जाता है। उत्तरपुराण में पार्श्व के प्रथम भव का वर्णन इन शब्दों में हुआ है :
“इसी जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में एक सुरम्य नामका बड़ा भारी देश है। उसमें बड़ा विस्तृत पोदनपुर नगर है। उस नगर में पराक्रम आदि से प्रसिद्ध अरविंद नाम का राजा राज्य करता था। उसे पाकर प्रजा ऐसी संतुष्ट थी जैसी कि प्रजापति को पाकर हुई थी। उसी नगरी में वेद-शास्त्र का जानने वाला एक विश्वभूति नाम का ब्राह्मण रहता था । उसे प्रसन्न करने वाली दूसरी श्रुति के समान अनुन्धरी नाम की उसकी ब्राह्मणी थी। उन दोनों के कमठ और भरुभूति नाम के दो पुत्र थे । ये दोनों मानों विष और अमृत से बनाए गए हों । अथवा वे दोनों पाप और धर्म के समान प्रतीत होते थे । कमठ की स्त्री का नाम वरुणा था और मरुभूति की स्त्री का नाम वसुंधरी था । वे दोनों राजा के मंत्री थे। उनमें मरुभूति नीति का अच्छा ज्ञाता था । नीच तथा दुराचारी कमठ ने वसुंधरी के निमित्त से सदाचारी एवं सज्जनों के प्रिय मरुभूति को मार डाला । मरुभूति मर कर मलयदेश के कुजक नामक सल्लकी के बड़े भारी वन में वज्रघोष नामका हाथी हुआ ।"
पा. च. की प्रथम संधि में वर्णित पार्श्व के प्रथम भव के वर्णन और उत्तरपुराण के उक्त वर्णन में कोई मौलिक भेद नहीं है फिर भी पद्मकीर्ति ने कुछ स्थलों पर विस्तार और कुछ स्थलों पर कुछ सामान्य परिवर्तन किए हैं। यह क्रम पद्मकीर्ति ने पार्श्व के अन्य भवों के बारे में भी अपनाया है । जो मुख्य मुख्य परिवर्तन पद्मकीर्ति ने किए हैं वे निम्नानुसार हैं :
(१) उत्तरपुराण में कमठ और मरुभूति के बीच वैरबंध के कारण को केवल इस श्लोक में दिया है
वसुंधरी-निमित्तेन सदाचारं सतां मतम् । मरुभूति दुराचारो जघान कमठोऽधमः ॥ उ.पु. ७३.११ पद्मकीर्ति ने वैरबंध के कारण को पापाचार की एक पूरी कहानी में परिणत किया है।
(२) उत्तर पुराण के अनुसार मरुभूति के छठवें जन्म में उसकी माता का नाम विजया था। पा. च. के अनुसार वह नाम लक्ष्मीमति है। इस भव में मरुभूति का नाम उत्तर पुराण के अनुसार वज्रनाभि पर पा. च. के अनुसार चक्रायुध था । उत्तर पुराण में वजनाभि को एक चक्रवर्ती बताया है और तदनुरूप ही वहां उसका वर्णन किया हैं। पा. च. में मरुभूति के जीव चक्रायुधको चक्रवर्ती नहीं माना है।
उत्तर पुराण में मरुभूति के आठवें भव का नाम आनन्द बताया है तथा उसे केवल माण्डिलिक कहा गया है किन्तु पा. च. में आठवें भव में मरुभूति के जीव का नाम कनकप्रभ है तथा कनकप्रभ को एक चक्रवर्ती बताकरं उसकी
१. ये दोनो ग्रन्थ श. सं, ७५९ और ८२७ के बीच लिखे गए-देखिए जैनसाहित्य और इतिहास पृ. १४०-१४१, लेखक पं. नाथूरामजी प्रेमी । २. उ. पु. ७३.६ से १२ ३. पा. च. १. १२ से २३, ४. उ. पु. ७३. ४२ से ६..
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