________________
पार्श्वनाथ के पूर्वभवों का तुलनात्मक अध्ययन विजययात्रा आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है,' यद्यपि उस चक्रवर्ती का नाम वर्तमान अवसर्पिणी के चक्रवर्तीयों में नहीं है।
(४) उत्तर पुराण में मरुभूति के जीव का नौवां भव अच्युत कल्प के प्राणत विमान में हुआ बताया गया है तथा उसे उस कल्प का इन्द्र बताया है। पा. च. में मरुभूति का जीव नौवें भव में वैजयन्त कल्प में उत्पन्न बताया गया है।'
उत्तर पुराण के अतिरिक्त पार्थ के पूर्वजन्मों का वर्णन हमें पुष्पदन्त के तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार (या महापुराण) में, हेमचन्द्र के त्रिषष्टि-शलाका-पुरूष-चरित में तथा लक्ष्मीवल्लभ द्वारा लिखित उत्तराध्ययन की टीका के २३ वें अध्ययन में भी प्राप्त होता है।
संभवतः पार्श्व के इन भवों के वर्णन से आकृष्ट होकर, संभवतः पार्श्व के प्रति अटूट श्रद्धा के कारण या संभवतः महावीर के निकट पूर्ववर्ती तीर्थकर होने के कारण अनेक जैन लेखकों ने पार्श्व की गाथा स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में भी निबद्ध की है। फलतः आज लगभग १४ से भी अधिक पार्श्वनाथ चरित्र उपलब्ध हैं । जिनरत्नकोश के अनुसार पार्श्वनाथ के नाम से रचे गए पुराणों की संख्या ११ तथा काव्यों की संख्या तीन है । इनके अतिरिक्त उनके स्तोत्र आदि की अनेक रचनाएं आज उपलब्ध हैं।
इन समस्त ग्रन्थों में से कुछ श्वेताम्बर और कुछ दिगम्बर परम्परा में मान्य हैं । श्वेताम्बर परम्परा में प्रथम पार्श्व चरित (सिरि पासनाहचरियं) देवभद्रसूरिने लिखा है। इस ग्रन्थ में पार्श्वनाथ के पूर्व भवों का जो कथासूत्र है वह प्रायः वही है जो गुणभद्र के उत्तरपुराण में या पद्मकीर्ति के पासणाह चरिउ में अपनाया गया है । किन्तु परम्परा की अपेक्षा से उसमें कुछ स्थलों पर कुछ विशेषता है जो श्वेताम्बर परम्परा में लिखे गए उत्तरवर्ती ग्रन्थों में पूर्णतः अपनाई गई है। देवभद्रसूरि के ग्रन्थ में जो विशेष परिवर्तन दिखाई पड़ते है वे निम्नानुसार हैं:
(१) देवभद्रसूरि के अनुसार मरुभूति अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् खिन्न चित्त हो गया था। वह हरिश्चन्द्र नामक मुनि के द्वारा दिये गए उपदेश का अनुसरण कर अपने घरबार, यहां तक कि अपनी पत्नी, के प्रति सर्वथा उदासीन रहने लगा था । परिणामस्वरूप उसकी पत्नी कमठ की ओर आकृष्ट हुई । कमठ और अपनी पत्नी के पापाचार की कहानी की खबर मरुभूति को वरुणा से ज्ञात हुई। इस वार्ता की पुष्टि के लिये मरुभूति नगर से बाहर जाने का ढोंग करता है किन्तु रात्रि में याचक के वेष में लोटकर उसी स्थान पर ठहरने की अनुमति पा लेता है जहां कमठ और वसुंधरी मिलते हैं। रात्रि में वह उन दोनों को देखता है।
(२) मरुभूति के छठवें भव में, देवभद्रसूरि के अनुसार, उसका नाम वज्रनाभ था । यह नाम गुणभद्र के उत्तर पुराण में दिये अनुसार है। वज्रनाभ के बंगेशकुमारी विजया के साथ विवाह के प्रसंग में देवभद्र ने विजया की माता के स्वयंवर का तथा स्वयंवर से लौटते हुए वज्रनाभ के पिता वनतीर्थ के कुछ राजाओं से युद्ध करने का विशेष वर्णन किया है। ये दोनों वर्णन रघुवंश के इंदमती स्वयंवर तथा उससे लौटते हुए राजकुमार अज और अन्य राजाओं के बीच हुए युद्ध का स्मरण दिलाते हैं। देवभद्रसूरि के अनुसार वज्रनाभ के पुत्र का नाम चक्रायुध था। उल्लेखनीय है कि पद्मकीर्ति के अनुसार चक्रायुध नाम मरुभूति के छठवें भव का है।
(३) देवभद्रसूरि ने मरुभूति के आठवें भव में उसे चक्रवर्ती के रूप में प्रस्तुत किया है । इस भव में उसका नाम कनकबाहु था । (पद्मकीर्ति के अनुसार कनकप्रभ)। यह कनकबाहु मृगया के समय भटक कर एक आश्रम में पहुंच जाता है जहां वह एक कन्या को देखता है जो भ्रमर से त्रस्त हो रही थी। कनकप्रभ को बाद में जब ज्ञात होता है कि वह कन्या खेचरराज की पुत्री पद्मा है तो वह उससे विवाह कर लेता है। कहना आवश्यक नहीं कि देवभद्रसूरि ने यह कल्पना अभिज्ञान शाकुन्तल के आधार पर की है।
१. पा. च. ६वी संधि. २. उ. पु. ७३.६८. ३. पा. च. ७.११.१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org