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उपा. यशोविजय रचित
व्यञ्जकत्वं च प्राधान्येन स्वविषयव्यवस्थापकत्वम् ।
एवं च पदार्थ प्रतिपादयन्नपि भाष्यकारस्तत्त्वतो लक्षणान्येव सूत्रितवान् । शयित संलग्नता का सूचक-बोधक है । मन का एकाग्रीभाव जब होता है तब क्षयोपशम में संलग्नता आती है। ऐसे क्षयोपशम को प्रतिविशिष्ट क्षयोपशम कहा जाता है। ऐसे क्षयोपशम से सूक्ष्म अर्थका ज्ञान होता है । इसलिए इस वाक्य से यह अर्थ निकलता है कि मनको एकाग्र करने पर इतर क्षयोपशम से विलक्षण क्षयोपशम की अपेक्षा से अत्यन्त सूक्ष्मअर्थविषयक ज्ञान जिस से हो उसे उपलम्भक कहते हैं। यह भी नय का एक लक्षण ही है।
व्यञ्जकत्वमित्यादि-तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य में नय पदार्थ का प्रतिपादन व्यञ्जक पद से भी किया गया है। नय पद में प्रविष्ट नी धातु का अर्थ व्यञ्जन भी हो सकता है. इस आधार पर नय पद और व्यञ्जक पद की समानार्थता सिद्ध होती है। नय में व्यनकत्व क्या है ? इसी को उपाध्यायजी अपनी भाषा में कहते हैं कि प्राधान्येन स्वविषयव्यवस्थापकत्व ही नय में व्यञ्जकत्व है। व्यञ्जयन्ति स्पष्टयन्ति स्वाभिप्रायेन वस्तु ये ते व्यञ्जकाः-ऐसा इस का विग्रह वाक्य है, जो अपने अभिप्राय से वस्तु को स्फुट कर दे, अर्थात् आत्मस्वभाव में स्थापित कर दे, वह व्यजक कहा जाता है । यही अर्थ उपाध्यायजी के शब्दों से भी निकलता है । वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, उन अनन्त धर्मों में से प्रधानरूपेण किसी धर्म की व्यवस्था जिस से हो वह व्यञ्जक कहा जाता है । परन्तु वह धर्म स्वाभिप्राय का विषय होना चाहिए और उस स्वाभिप्रायविषयरूप धर्म में, इतर धर्म की अपेक्षा से प्रधानता होनी चाहिए । नय का ऐसा स्वभाव है कि अभिप्रत धर्म का प्रतिपादन प्रधानरूप से करता है और अनभिप्रेत धर्मों का निषेध नहीं करता है इसलिए अनभिप्रेत अंश का भी गौणरूप से व्यवस्थापन करता है। इसी अभिप्राय से उपाध्यायजी ने प्राधान्येन यह पद लक्षण की कुक्षि में प्रविष्ट किया है। यह भी नय का एक लक्षण ही हैं।
एवं चेत्यादि-शंकाः-तत्त्वार्थसूत्र भाष्यकार ने तो नय पद के अर्थ का प्रतिपादन नयाः, प्रापकाः, साधकाः, निर्वर्तकाः, निर्भासका:, उपलम्भकाः, व्यञ्जकाः इति अनर्थान्तरं इस सन्दर्भ से किया है । प्रापकत्व, साधकत्व, निर्वर्तकत्व इत्यादि नय के लक्षण हैं ऐसा तो नहीं कहा है और आपने प्रापकत्व, साधकत्व आदि को नय के लक्षणरूप से प्रतिपादन किया है यह तो भाष्य से विरुद्ध प्रतीत होता है। उत्तर :-एवञ्च शब्द का अर्थ यह है कि प्रापकत्व, साधकत्व वगैरह नय के लक्षण भी बन सकते हैं, तब नय पदार्थ का प्रतिपादन करते हुए भाष्यकार ने वास्तविकरूप से नय के लक्षणों का ही सूत्ररूप से प्रतिपादन किया है। इस हेतु से प्रापकत्व, साधकत्व आदि को नय के लक्षण मानने में भाष्य के साथ कोई विरोध नहीं आता है । क्योंकि लक्षण के प्रतिपादन सेही भाष्यकार का तात्पर्य है। लक्षणान्येव सूत्रितवान् इस वाक्य खण्ड में जो एव पद उपाध्यायजी ने लगाया है, इस से यह तात्पर्य अभिव्यक्त होता है कि भाष्यकार का आशय लक्षण के प्रतिपादन में ही है । अतः पदार्थ प्रतिपादन के व्याज से भाष्यकार ने भी लक्षणों का ही प्रतिपादन किया है । भाष्यकार के लक्षण सूत्ररूप से हैं इसलिए