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नयरहस्ये निक्षेपविचारः एवं सति 'पर्यायार्थिकस्य शब्दादेरपि द्रव्यसहत्वापत्तेः, अत्यन्तभेदग्राहिणोद्वयोः समुदितयोरपि मिथ्यादृष्टित्वाद्, अत्यन्तभेदे पर्यायद्वयसहोक्तिप्रसङ्गात् तथा च 'गुणो द्रव्यं इति द्रव्यार्थिकनयाभिलापानुपपत्तेः, अत्यन्तभेदेऽपि पर्यायार्थिन द्रव्यग्रहे द्रव्यार्थिक स्यान्तर्गडुत्वप्रसक्तेः 'एकस्मिन्द्रव्यपक्षे पर्यायाथिकनयमतेऽपि 'द्रव्य सामायिकमि'त्यस्याऽविरोधप्रसङ्गात्, 'एतन्मतस्य भाष्यकृतैव निरस्तत्वाच्चेति चेत् ? पर्यायार्थिक का स्वीकार करना उचित है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों का स्वीकार निष्प्रयोजन है ?-इस शंका निरवकाश होने का कारण यह है कि द्रव्यार्थिकनय सर्वथा अभेदरूप से द्रव्यपर्याय का ग्रहण करता है, पर्यायार्थिकनय तो सर्वथा भेदरूप से द्रव्य पर्याय उभय का ग्रहण करता है। इसलिए द्रव्याथिक से ग्रहीत विषय सर्वथा अभेद विशिष्ट द्रव्यपर्याय उभयरूप है, उस से भिन्न विषय सर्वथा भेद विशिष्ट द्रव्य पर्याय उभयरूप होता है, उस विषय को ग्रहण करने के लिए पर्यायार्थिकनय की कल्पना आवश्यक है, एवम, पर्यायार्थिकनय से गृहीत विषय सर्वथा भेद विशिष्ट द्रव्यपर्याय उभयरूप है, उस से अतिरिक्त विषय सर्वथा अभेद विशिष्ट द्रव्यपर्याय उभयरूप होगा, उस को ग्रहण करने के लिए द्रव्यार्थिकनय की कल्पना भी आवश्यक है। इसतरह नयद्वय की कल्पना अनिवार्य होने से किसी की व्यर्थता की आशंका का कारण नहीं रहता है। इस रीति से द्रव्यार्थिकनय में भी पर्यायसहत्व सिद्ध होने से नैगमनय में निक्षेपचतुष्टय स्वीकर्तृत्व सिद्ध हो जाता है"
परन्तु यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस रीति से शब्दनयों में भी द्रव्यनिक्षेपसहत्व आ जाने से "भावमेघ शब्दनयाः' इत्यादि भाष्योक्त व्यवस्था की हानि रूप दोष लगा ही रहता है, कारण कि भाष्योक्त व्यवस्था के अनुसार शब्दनयों में भावनिक्षेप मात्र का स्वीकार सिद्ध होता है । जब कि, प्रस्तुत आचार्य के मत से शब्दनयों में द्रव्यनिक्षेपसहत्व का प्रसंग आ जाता है। यहाँ यह ख्याल रखना चाहिए कि पर्यायार्थिकनय और शब्दनय ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होने के कारण पर्यायशब्द हैं और शब्द समभिरूढ और एवम्भूत ये तीनों नय शब्दनय शब्द से तथा पर्यायनय शब्द से गृहीत होते हैं। मृल में "एतेन" शब्द का अर्थ 'भाष्योक्तव्यवस्थागप्रसंगेन ऐसा है और इसी कारण से यह मत अपास्त अर्थात् निरस्त होता है, ऐसा सम्बन्ध लगाना है।
__ (एवं सति) द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक इन दोनों नयों में समानरूप से द्रव्यपर्याय उभय के अभ्युपगमवादि के मत में अन्य दोष भी आते हैं। वे इस प्रकार (१) जैसे द्रव्यार्थिकनय एकान्त अभेदोपराग से द्रव्यपर्याय उभय का अभ्युपगम करता है, इसलिए उस में पर्यायसहत्व आता है और नामादिनिक्षेप चतुष्टय का स्वीकार उस में सिद्ध होता है, सीतरह शब्द, समभिरूढ, एवम्भूत ये तीनों पर्यायाथिकनय भी एकान्त भेदोपराग से द्रव्य पर्याय इन दोनों के स्वीकर्ता माने जायेगे, तब इन में भी द्रव्य सहत्व की आरति होगी, इस से पूर्वोक्त भाष्योक्त व्यवस्था का भंग हो जायगा, इसी
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