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उपा. यशोविजयरचिते
अपेक्षा से कारणत्व की व्यवस्था व्यवहारनय में मानते हैं । अत: दोनों व्यवस्थाओं में अपेक्षा समानरूप से मूल बनती है । आनन्तर्य की अपेक्षा को लेकर निश्चयनय को बलवान माना जाय या पारम्पर्य की अपेक्षा लेकर व्यवहारनय को बलवान कहा जाय इस में इच्छा ही प्रधान है।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि "दोनों व्यवस्थाओं में आपने अपेक्षाधीन बलवत्ता को बताया है वह युक्त नहीं हैं, उस का कारण यह है कि निश्चयनयने जो आनन्तर्य की अपेक्षा से कारणता की व्यवस्था की है वही उचित है; व्यवहारनयने पारम्पर्य की अपेक्षा से कारणता की व्यवस्था की है वह उचित नहीं है क्योंकि अव्यवहित कारण से ही कार्य का उद्गम होता है, पूर्ववर्ती व्यवहित पदार्थ से कार्यात्पत्ति तब तक नहीं होती जब तक अव्यवहित कारण का समवधान न हो। अव्यवहित कारण और व्यवहित कारणों में पूर्वापर भाव होता है यानी अव्यवहित यह परवी है और व्यवहित यह पूर्ववर्ती है, तो परवर्ती के द्वारा पूर्ववर्ती का उपक्षय यानी चरितार्थता हो जाती है । इसलिये पारम्पर्य की अपेक्षा से कारणता की व्यवस्था ग्राह्य नहीं हो सकती-इस का समाधान ग्रन्थकारने (व्यवहार वादी की ओर से ] यह दिखाया है कि पारम्पर्य की अपेक्षा ही उचित है, क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि दास के द्वारा अगर कहीं से गधे को विकत लिया जाय तो वह गधा भी उस दास के स्वामी का ही हो जाता है- इसी प्रकार व्यवहित कारणों से ही अव्यवहित कारणों का समवधान हो कर उन अव्यवहित कारणों से कार्योत्पत्ति होती है इसलिये अव्यवहित कारणों का कार्य भी अपने स्वामी जैसे व्यवहित पूर्ववर्ती कारणों का ही हो जाता है, अत एव मानना तो यही चाहिये कि पूर्व यानी पारम्परिक कारणों से पर का यानी निकटवर्ती कारणों का उपक्षय यानी चरितार्थता हो जाती है।
यदि यह कहा जाय कि-"उपक्षय का अर्थ है व्यवधान, और व्यवधान तो व्यवहित कारणों का ही होता है, अव्यवहित का नहीं होता, अतः व्यवहित कारणों को ही उपक्षीण यानी चरितार्थ मानना चाहिये-"तो यह ठीक नहीं है क्योंकि व्यवधान का अर्थ है बीच में किसी का होना, यहाँ बीच में केवल व्यापार ही है, दूसरा तो कोई नहीं है। और व्यापार के व्यवधान को कहीं भी व्यवधानरूप में नहीं लिया जाता क्योंकि वह तो अव्यवधान का सपादक है अतः इस का व्यवधान नगण्य होता है इस लिये व्यवहित का उपक्षय नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि-'आपने व्यापार के द्वारा अव्यवधान दिखाया वह न्याययुक्त नहीं है, शुद्ध अव्यवधान को लेकर ही कारणता की व्यवस्था करना न्याययुक्त है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह वस्तु केवल इच्छा पर निर्भर है। शुद्धाव्यवधानवाले कारण से पूर्व कारण का उपक्षय होता है, यह नियम यदि आप अपनी इच्छा से बनावेगे तो कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से यह भी नियम बना सकता है कि "दासेन मे खरः क्रीत"० इत्यादि न्याय से व्यापार को व्यवधायक न मानकर पूर्वकारण से ही पर का उपक्षय होता है। आप के नियम में इच्छा को छोडकर कोई अन्य प्रयोजक नहीं है और इच्छा सब को एकरूप ही होती नहीं हैं, इसलिए आप की इच्छा से विपरीत इच्छावाला व्यक्ति आप से कल्पित नियम के विपरीत नियम की कल्पना कर सकता है, उस में कोई बाधक नहीं है। अतः निश्चय और व्यवहार के अभिमत