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नयरहस्य कारणताविमर्शः स्परोपमर्दनियतस्य क्षणभेद नियतत्वात् । न च वर्तमानत्वमतीतत्वं चैकत्र व्यवहारसिद्ध, न चानीदृशेऽर्थे प्रमाणावतारः, न च यत्किञ्चिद्वयवहारदर्शनात सर्वत्र तदर्शनाश्वासो न्याय्यः-इत्यादिकं व्यवहारनिश्चययोमिथो विवादमवलोक्य वस्तुस्थितिरन्वेषणीया ।
यहाँ निश्चयनय के मत से यह कहा जाय कि-'एकसमयभावि होने पर भी जो उपादान होगा वही कारण बनेगा और जो उपादेय होगा वही कार्य होगा । इसरीति से घटकुर्व दरूपात्मक वस्तु में कारणता होगी और घट में उपादेयता होने से कार्यता रहेगी, अतः उपादानोगदेयभाव ही कार्यकारणभाव का व्यवस्थापक बनेगा, इसलिए अव्यवस्था का प्रसंग देना उचित नहीं है तो इस का समाधान व्यवहारनय की दृष्टि से इसतरह दिया जाता है कि जहाँ-जहाँ उपादान-उपादेयभाव है, वहाँ वहाँ उपमपिमर्दकभाव भी रहता है । जैसे-मृत्पिण्ड और घट में उपादानोपादेयभाव रहता है, वहाँ उपम?पमर्दकभाव भी है । मृत्पिण्ड का उपमर्द कर के ही घट उत्पन्न होता है । “उपमर्दन" पद से पूर्वावस्था का विनाश सूचित होता है। पिण्डावस्था का विनाश जब तक नहीं होता है, तब तक घट भी नहीं होता है यह अनुभवसिद्ध है, अतः उपमर्थ जो होता है वही उपादान कहा जाता है और जो उपमर्दक होता है वही उपादेय कहा जाता है, इसलिए उपादानोपादेयभाव का व्यापक उपम पमर्दकभाव बनता है । तथा उपमर्योपमर्दकभाव जहाँ जहाँ रहता है वहाँ वहाँ क्षणभेद भी रहता है क्योंकि पूर्व क्षण में उपादान का उपमर्दन होने पर ही उत्तरक्षण में घटादिकार्य की उत्पत्ति होती हैं, अतः क्षणभेद का रहना वहाँ आवश्यक है जहाँ उपादान-उपादेयभाव रहता है । इस रीति से उपादानोपादेयभाव क्षणभेद का व्याप्य बनता है । अब एकक्षण में क्षणभेद तो रहेगा नहीं, इसलिए तद्वयाप्यभूत उपम पमर्दकभाव भी नहीं रहेगा। फलतः तद्वयाप्यभूत उपादानोपादेयभाव भी नहीं रह सकेगा। व्यापक का अभाव जहाँ रहता है, वहाँ तवयाप्य का और तद्वयाप्यव्याप्य का अभाव अवश्य रहता है। जैसे द्रव्यत्व का अभाव गुणादि में रहता है, वहाँ तद्वयाप्य पृथिवीत्व का और पृथिवीत्व के व्याप्य घटत्व का भी अभाव रहता है, यह बात तो प्रसिद्ध ही है। इसलिए समानसमय में उपादानोपादेयभाव के द्वारा निश्चयवादीयों की कार्यकारणभावव्यवस्था किसीतरह सम्भवित नहीं हो सकती है।
दसरी बात यह है कि क्रियमाण कृत ही है. इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए निश्चय नयवादी को कृधातूत्तर शानच प्रत्ययार्थ वर्तमानत्व और कृधातृत्तरनिष्ठाप्रत्ययार्थ अतीतत्व को एक ही घटादि वस्तु में एककालावच्छेदेन रखना आवश्यक होगा। परन्तु यह सम्भव नहीं है क्योंकि वर्तमानत्व और अतीतत्व की एककालावच्छेदेन एकवस्तु में स्थिति व्यवहार से सिद्ध नहीं है । इसलिए एकवस्तु में एककालावच्छेदेन वर्तमानत्व और अतीतत्व की स्थिति प्रमाण से भी सिद्ध नहीं है क्योंकि जो वस्तु व्यवहार में नहीं आती है, उस मे प्रमाण की भी प्रवृत्ति नहीं होती है। अत: “क्रियमाण कृत ही है" इसतरह की निश्चयनय की मान्यता अप्रमाणिक है । निश्चयवादी ऐसा कहे कि-"क्रियमाण कत ही है" इसतरह का व्यवहार व्यवहारनयवादी को न होता हो तो भी निश्चयनय