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उपा. यशोविजयरचिते फलं पुनर्विचित्रनयवादानां जिनप्रवचन विषयरुचिसम्पादनद्वारा रागद्वेषविलय एव । अत एवार्य (श्रीभद्रबाहु)भगवदुपदेशोऽपि (आवश्यक नियुक्तौ)।
"सव्वे सिपि णयाणं बहुविह वत्तव्ययं णिसामित्ता ।
तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुण ढिओ साहू ॥१०५५॥ की दृष्टि से किसी को तो यह व्यवहार अवश्य होता है । तब, व्यवहारप्रसिद्ध होने के कारण प्रमाण की भी प्रवृत्ति होगी। प्रमाण की प्रवृत्ति होने पर “क्रियमाण कृत ही है" इस मान्यता में अप्रमाणिकता का आपादान ही असन्त है।"-तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि किसी एक व्यक्ति का इसतरह का व्यवहार देखने में आवे तो इस से सभी व्यक्ति का इसतरह का व्यवहार आज नहीं तो भविष्य में जरूर देखने में आएगा, ऐसा विश्वास कर लेना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि भविष्य में सभी व्यक्ति को ऐसा व्यवहार होगा ही, इस का कोई नियामक देखने में नहीं आता है। ____ “गम्भीरं नयम कियद विविच्यते” एतत् पर्यन्तग्रन्थ से निश्चयनयवादीने व्यवहार नय के पक्ष का निराकरणपूर्वक निश्चयनय के पक्ष का समर्थन किया है । उस के बाद व्यवहारनयवादी ने निश्चयनयवादी का निराकरणपूर्वक अपने पक्ष का समर्थन किया है। "कुर्वदरूपात्मक चरमकारण ही कार्य के प्रति कारण है" इसके समर्थन में निश्चयनयवादीने अपनी दृष्टि से सभी युक्तियों का अवलम्बन किया है । कार्यनियतपूर्ववृति ही कार्य के प्रति कारण है, चाहे वह तत्काल में कार्य का उत्पादन करता हो, या न करता हो-यह पक्ष व्यवहारनय का है। इस के समर्थन में व्यवहारनयवादी ने भी अपनी दृष्टि से सभी युक्तियों का प्रयोग किया है । विचार करने पर किसी भी पक्ष में दुर्बलत्व या प्रबलत्व दृष्टिगोचर नहीं होता है । अतः इस विवाद का अन्त नहीं आता है किन्तु विवाद खडा ही रहता है, इसलिए विवादविषयवस्तु की क्या स्थिति है अर्थात् दोनों पक्षों में कौन पक्ष प्रामाणिक माना जाय इस का अन्वेषण करना चाहिए ॥ तात्पर्य, जो उभयनय सम्मत वस्तु है वही स्याहादमत में प्रमाण है।
फल पुनः] पूर्व में “वस्तुस्थिति का अन्वेषण करना चाहिए" एसा यन्थकार ने कहा है, उस वस्तुस्थिति को "चरणगुणटूठिओ साहू'' इस गाथांश से परममध्यस्थतारूप में ग्रन्थकार स्वयं ही कहनेवाले हैं । वह परममध्यस्थता रागद्वषविलय के बिना नहीं प्राप्त होती और वह नयज्ञानसाध्य है । नयवाद भी रागद्वषविलय का साक्षात् कारण नहीं है किन्तु जिन प्रवचन प्रोक्त विषयों में रुचिसम्पादन द्वारा ही है। इस का आशय यह है कि जितना तथ्य वाणी से कहा जा सकता है वे सभा जिन से कथित ही है। जिनोक्ति का विषय जो नहीं है, वह किसी अन्य की सत्य वाणी का विषय नहीं हो सकता है । जिनवाणी के विषयभूत पदार्थों में कितने लोगों को विरोध का आभास होता है, जहाँ परस्परविरोध का आभास हो, उस में अप्रमाणिकता का भ्रम भी होता है, जिस विषय में अप्रमाणिकता का भ्रम होता है उस विषय में लोगों की रुचि नहीं होती है, इसलिए उन लोगों को जिनप्रतिपादित विषय में रुचि का न होना सम्भावित रहता है। जिन को नयों का ज्ञान नहीं है, ऐसे व्यक्तियों को जिन विषयों में विरोध