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उपा. यशोविजयरचिते
एतेषु च बलवत्त्वाऽबलवत्वादिविचारेऽपेक्षौव शरणम् । निश्चयव्यवहाराभिमतकारणानामानन्तर्यपारम्पर्यव्यवस्थितानामप्यपेक्षाऽविशेषात्। 'पूर्वस्य परेणोपक्षयाद्विशेष' इति चेत् ? न,-'दासेन मे खरः क्रीतः' इत्यादि न्यायात्परस्येव पूर्वणोपक्षयान् । 'व्यवहितस्य व्यवधान मेवोपक्षय' इति चेत् ? न, व्यापारेण व्यवधानाऽभावात् । 'ईदृशाऽव्यवधानाच्छुद्धाऽव्यवधानमेव न्याय्यमि'ति चेत् ? न, इच्छामात्रशरणत्वात् । 'क्रियानये
[नयों के द्वारा प्रमाणेां का उपग्रह-अनुग्रह ] [एतेषु च यद्यपि] ये नैगमादि सातों नय अपने अपने विषय को सिद्ध करते हैं उस समय अपने अनभिमत विषय का निराकरण भी करते हैं। जैसे-क्षणिकत्व का साधन जब करते हैं उस समय स्थिरता का खण्डन भी करते हैं । अनित्यत्व का साधन जब करते हैं, उस समय नित्यत्व का निराकरण करते हैं । एवम् , नित्यत्व को साधन करते समय अनित्यत्व का खण्डन करते हैं । यह नित्यत्वादि का निराकरण प्रमाणरूप नहीं है क्योंकि नित्यत्व का निराकरण करने से अनित्यत्वादिरूप एकान्त में अनुप्रवेश हो जाता है, तब ऐसे अप्रमाण वस्तु का निरूपण अनुपयुक्त सिद्ध होता है । इसतरह की आशंका यदि यहाँ नय निरूपण में की जाय तो इस का समाधान ग्रन्थकार तर्क के उदाहरण से करते हैं कि- तार्किक लोग अनुमानादि प्रमाणों में जब व्यभिचार आदि दोषों का उदभावन कोई प्रतिवादी करता है, तो उस का निराकरण करने के लिए तर्क का आश्रय लेते हैं और व्यभिचारादि दोषों की सम्भावना को उस के द्वारा दूर करते हैं। वह तर्क आहार्यज्ञान स्वरूप माना जाता है। व्याप्य के आरोप से व्यापक के आरोप का होना यह तर्क का लक्षण तार्किक लोग मानते हैं । वह तर्क इच्छाजन्य भ्रमात्मक ज्ञानरूप होने से अप्रमाण है. यह भी वे अच्छी तरह समझते हैं, तो भी तर्क के द्वारा प्रमाण में समर्थन प्राप्त होता है और प्रमाणों का अनुग्राहक होने से अप्रमाणभूत तर्क को भी उपयोगी मानते हैं । उसी रीति से प्रस्तुत में नित्यत्वादि का निराकरण करनेवाले स्वाभिप्राय विशेषरूप नय परस्पर मे मिलकर प्रमाण से वस्तु के प्रतिपादन में अतीव उपयोगी हैं । अतःप्रमाण का अनुग्राहक होने से नित्यत्वादि के निराकरण करनेवाले भी नय अनुपयोगी तो नहीं है-यह सम्भावना करने में कोई बाधक नहीं है । तथापि इस विषय में क्या सारवस्तु है वह तो बहुश्रुत आचार्य ही दिखा सकते हैं क्योंकि वे लोग अनेक शास्त्रों का श्रवण मनन आदि करनेवाले होते हैं।
[ नयों में बलवान्-दुर्बल भाव इच्छाधीन ] एतेषु च] यहाँ यह शंका हो सकती है कि-'पूर्व वर्णित ये सातों नय अभिप्राय विशेषरूप हैं और भिन्न भिन्न विषयों को मानते हैं । अभिप्रायरूपता इन सभी नयों में समान है तब इन में यह बलवान है और यह दुर्बल है इस का निर्णय किस प्रकार किया जा सकता है ?-इस का समाधान यह है कि अपेक्षा के आधार पर ही इन में बल. वत्त्व और दुर्बलत्व का विचार हो सकता है । "नैगम से आरम्भ कर एवम्भूतनय तक