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नयरहस्ये कारणताविमर्शः
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की अपेक्षा अवश्य होगी, क्योंकि उन सहकारीओं में भी स्वतः साम तो स्थिरवादी मानते ही नहीं हैं । इसतरह उन अन्य सहकारीओं द्वारा पूर्व सहकारीओं में कुछ उपकार मानना ही होगा, नहीं तो उन सहकारीओं की अपेक्षा ही नहीं होगी। अनुपकारी की अपेक्षा कोई नहीं करता है, यह लोकप्रसिद्ध बात है । अतः पूर्वसहकारीओं में इतर सहकारीओं को भी स्वभिन्न सहकाराओं की अपेक्षा से उपकार करना होगा, इसतरह अनवस्था दोष उपस्थित होता है। सहकारी उपकार करने में स्वभिन्न सहकारीओ की अपेक्षा नहीं रखते हैं, क्योंकि वे स्वतः समर्थ है, ऐसा मान ले तो क्षणिकवाद में ही प्रवेश हो जायगा । इसलिए, कुर्वदरूपत्व चरमकारण में रहता है, और चरमकारण से भिन्न कारण न तो कुर्वदरूप है और वस्तुतः न कारण ही है यह "क्रियानय" की मान्यता ही युक्त है।
चरमकारण में ही कारणता रहती है, इसीलिए जैन मत में ‘क्रियमाण' घटादि वस्तु को 'यह कृत ही है' इसतरह दिखाया गया है । चरमकारण का योग होने पर घटादिक्रिया की सिद्धि हो जाती है, उमी से घटादिवस्तु को कृत मान लिया जाता है और क्रिया की सिद्धि से ही चरमकारण में कुर्वदुरूपत्व की उपपत्ति होती है। यदि क्रिया की सिद्धि रहने पर चरमकारण ही न हो तो घटादिरूप कार्य कृत या निष्पन्न नहीं माना जायगा, तब तो चरमकारण में कुर्वदरूपत्व और तन्मूलक कारणत्व भी नहीं होगा। अतः कारणत्व सिद्ध करने के लिए कुर्वद्रूपत्व की अपेक्षा रहती है और कुर्वदरूपत्व का सिद्धि के लिए क्रियासिद्धि की अपेक्षा रहती है। क्रियासिद्धि मान लेने पर 'घटादिकार्य कृत है' ऐसा मानना आवश्यक है, इसलिए 'क्रियमाण कृत ही है' ऐसा जैन प्रवाद संगत होता है।
यहाँ शंका उठ सकती है कि-"क्रियमाण को कृत माना जाय तो इस का मतलब यह हुआ कि जो कृत-निम्पन्न है वही क्रियमाण यानी किया जा रहा है तब तो कृत के करण की समाप्ति ही न होगी, किन्तु कृत का करण सदा होता ही रहेगा क्योंकि सिद्ध घटादि वस्तु का भी यदि साधन माना जाय तो घटादि के प्रति कारणभूत दण्डादि की क्रिया का विराम कभी न होगा ? ।'- तो इस का समाधान यह है कि दण्डादि कारणों की क्रिया का फल है घटादि कार्य की उत्पत्ति । वह जब हो जाती है, तब दण्डादिगत क्रिया जिस को करणव्यापार करते हैं, वह स्वयं निवृत्त हो जाती है । इसलिए कृत के करण की भी समाप्ति हो जाती है। ___ यदि यह कहा जाय कि-'घटादि कार्य की उत्पत्ति से अव्यवहितपूर्वकाल में जिसतरह की क्रिया से युक्त दण्डादिरूप करण रहते हैं, उसीतरह की क्रिया से युक्त दण्डादि घटोत्पत्ति के उत्तरकाल में भी अनुवर्तमान रहेंगे तो उस काल में भी घटादि की उत्पत्ति का प्रसंग आवेगा, परन्तु, घटादि की उत्पत्ति के बाद पुनः घटादि की उत्पत्ति किसी को मान्य नहीं है इसलिए उस को इष्टापत्ति भी नहीं कह सकते हैं, अतः घटोत्पत्ति के बाद पुनः घटोत्पत्ति का प्रसंगरूप दोष क्रियानयवादी के मत में रहेगा।'-परन्तु यह कहना टीक नहीं है क्योंकि दण्डादिरूप कारणों में कदाचित चक्रभ्रमण जनक स्थल क्रिया घटोत्पत्ति के बाद रहेगी तो भी कुर्वदरूपात्मक सूक्ष्म क्रिया घटोत्पत्ति के बाद दण्डादि में नहीं रहती है, इसलिए उस काल में पुनः घटोत्पत्ति का प्रसङ्ग नहीं आता है।