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उपा. यशोविजयरचिते
च पचत्यपि भाविकृतित्रागभावमाद्यकृतिध्वंस चादाय पक्ष्यत्यपाक्षीदिति प्रयोगप्रसङ इति वाच्यम् , आद्यकृतिप्रागभावचरमकृतिध्वंसयोर्भविष्यदतीतप्रत्ययार्थत्वादिति चेत् ? न, जानातीत्यादौ धात्वर्थ एव प्रत्ययाथकालान्वयदर्शनात् । ही उस का अन्वय स्वीकार कर के "नष्टो घटः" "नश्यन् घटः” इत्यादि प्रयोगों की अव्यवस्था को दूर करने का प्रयास आप कर रहे हैं। यदि यह कहा जाय कि-"मकल धातु में रहनेवाला धातुत्व एक धर्म नहीं हो सकता है क्योंकि क्रिया का वाचक जो होता है, वही धातुपद से व्यवहार का विषय बगता है, इसलिए क्रियावाचकत्वरूप ही धातुत्व विचार करने पर सिद्ध होता है । धातुगत क्रियावाचकता भी क्रियाविषयबोधजनकत्वरूप है, उसका घटक जनकत्व कार्याव्यवहितपूर्ववर्तित्वरूप कारणतास्वरूप है । पूर्ववृत्तिता स्वरूपसम्बन्धरूप होती है, वह प्रत्येक धातु में भिन्न भिन्न होती है । अतः तत्स्वरूप धातुत्व भी भिन्न भिन्न ही मानना पडता है। एवम् , प्रत्ययत्व भी सकल प्रत्ययवृत्ति एक धर्म नहीं है, किन्तु तत्तत्प्रत्ययवृत्तिप्रत्ययत्व भिन्न-भिन्न है, क्योंकि "प्रकृत्युद्देशेन विधीयमानत्वं प्रत्ययत्वम्” यहा प्रत्यय का लक्षण माना गया है, इस से प्रकृति निष्ठ उद्देश्यतानिरूपित विधेयतारूप प्रत्ययत्व सिद्ध होता है। विधेयता विधेय के भेद से भिन्न-भिन्न मानी जाती है क्योंकि विचार करने पर विधेयता भी स्वरूपमम्बन्धात्मिका ही सिद्ध होती है, अतः 'प्रत्ययार्थ का धात्वर्थ में ही अन्वय होता है'-यह सामान्य नियम नहीं बन सकता है । इस नियम का मूलभूत कार्यकारणभाव जो पूर्व में 'विशेष्यता सम्बन्ध से प्रत्ययजन्य कालप्रकारकबोध के प्रति विशेव्यतासम्बन्ध से धातुजन्य उपस्थिति कारण है, ऐसा बताया गया है वह भी सामान्य कार्यकारणभाव नहीं बन
॥ है किन्त. विशेषरूप से ही कार्यकारणभाव बनेगा, तन्मूलक वह नियम भी विशेषरूप से बनेगा, तब तो कोई प्रत्ययार्थ ऐसा भी हो सकता है, जिस का अन्वय प्रत्ययार्थ में होगा और उक्त नियम का भङ्ग प्रसङ्गरूप दोष भी नहीं आयेगा । सामान्य नियम होने पर ही उस नियम के भङ्ग का अवसर आता है।"
परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि “घटः घटः” इत्यादि अनुगत प्रतीति के आधार पर सकल घटों का अनुगमक एकधर्म घटत्व जातिरूप माना जाता है । उसी तरह "धातुः धातुः” इत्यादि प्रतीति के आधार पर धातुत्व भी एकधर्म सकल धातुओं का अनुगमक सिद्ध हो सकता है। इसी तरह से "प्रत्ययः प्रत्ययः” इत्यादि प्रतीति के आधार पर प्रत्ययत्वरूप एकधर्म सकल प्रत्ययों का अनुगमक माना जा सकता है, वह धातुत्व और प्रत्ययत्व धर्म जातिरूप या अखण्डोपाधिरूप हो यह बात अलग है, परन्तु इस रीति से सकल धातुओं का अनुगमकत्व धातुत्व में और सकल प्रत्ययों का अनुगमकत्व प्रत्ययत्व में आवश्यक होगा । यदि प्रतीति को अनुगत न मानकर उस के आधार पर एक धातुत्व और एक प्रत्ययत्व की सिद्धि न माने तो भी पाणिन्यादि व्याकरणकर्ता के सकेत सम्बन्ध से धातुपदवत्त्व रूप एक धातुत्व की सिद्धि अवश्य होगी, जिस से सकल धातुओं का अनुगम हो सकेगा । एवम् पाणिन्यादि के सकेत सम्बन्ध से प्रत्ययपदवत्वरूप एकप्रत्ययत्व धर्म की सिद्धि भी अवश्य होगी, जिस से सकल प्रत्ययों का अनु