Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 242
________________ नयरहस्ये नयबलाबलविमर्शः २२५ सत्यम् , निश्चयत इत्थमेव । [? न तु] तत्वव्यवस्थायामपि, व्यवहारतोऽ ऽकुर्वतोऽपि नियतपूर्ववर्तिनः कारणत्वाभ्युपगमात् , अन्यथा पूर्व कुर्वद्रूपत्वाऽनिश्चये प्रवृत्त्यनुपपत्तिप्रसङ्गात् । किञ्चेदं कुर्वद्रूपत्वमपि सहकारिसम्पत्तावेव नान्यथेत्यवस्थितकारणादेव सहकारिचक्रानुप्रवेशात् कार्योपपत्तौ किं कुर्वदकुर्वतोभेदाभ्युपगमकष्टेन । हो जाती है । 'घट को कुम्भकार ने निष्पन्न कर दिया, ऐसे स्थल में घट, कुम्भकार, निष्पन्न इन शब्दों के समभिव्याहार से स्वरूपनिष्पत्तिरूप सिद्धत्व का बोध हो जाता है, इसीतरह अन्य अन्य स्वरूप सिद्धत्व का बोध अन्य अन्य समभिव्यहार से हो जायेगा, इसीलिए-अननुगत निष्ठाप्रत्ययार्थ सिद्धत्व मानने पर इन का बोध कैसे होगा ?- इसतरह की शंका को भी अवसर नहीं आता है। तब तो उक्त व्याप्ति नहीं बनेगी तो इस स्थल मे क्रियमाण कृत ही है, इस तरह की निश्चय नय की मान्यता भी कैसे संगत होगी ? इस आशंका का समाधान अस्तु वा. इत्यादि से करते हैं कि निष्ठा प्रत्ययार्थ मिद्धत्व अनेकरूप भले हो, तो भी घटादिवस्तु का क्रियाकाल, निष्ठाकाल का विरोध नहीं करता है । इसलिए घटादि के क्रियाकाल में भी अंशतः निष्ठाकाल अर्थात् सिद्धत्व घटादि में रह सकता है और सिद्धत्वविशिष्ट साध्यतारूप वर्तमानप्रत्ययार्थ भी रह सकता है क्योंकि इन का परस्पर विरोध नहीं है। अत: 'क्रियमाण कृत ही है' इस मान्यता में कोई बाधा न होने से यह मत युक्त ही है । इस रीति से गम्भीर नयमत का कुछ यहाँ पर विवेचन किया गया है । निश्चयनय अतिसूक्ष्म पदार्थावगाही होता है, इसलिए ग्रन्थकार ने इस का गम्भीरनयपद से कथन किया है । "स्यादेतत् । मात् चरमकारणमेव कारणं -नान्यत" इस ग्रन्थ से आरम्भ कर के "किय दिह विविच्यते" यहाँ तक ग्रन्थकार ने निश्चयनय के मत का समर्थन कर के "क्रियमाण कृत ही है" इस मान्यता को सिद्ध किया है। सत्यम्, निश्चयत] यहाँ "सत्यम्' पद अर्द्धस्वीकार अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसी अभिप्राय से ग्रन्थकार अग्रिम सन्दर्भ से यह बताते है कि कुर्वदुरूपत्व चरम कारण में ही रहता है, अतः चरमकारण ही कारण है । जिस में कुर्वदुरूपत्व नहीं रहता है वह कारण ही नहीं है। इसलिए कुशलस्थबीज अंकुर का कारण नहीं है । इसतरह के कारणत्व का निरूपण निश्चयनय की दृष्टि से यद्यपि सत्य है, तथापि "यह इस का कारण है' इस प्रकार की रणत्व की व्यवस्था में व्यवहारनय की दृष्टि से यह निरूपण मान्य नहीं है क्योंकि 'यह इस का कारण है' इस प्रकार की व्यवस्था में व्यवहारनय कार्यनियत पूर्ववृत्ति को ही कारण मानता है, चाहे वह तत्काल में कार्य का उत्पादन करता हो या नहीं करता हो, अतः कोठारगत बीज भी व्यवहारनय की दृष्टि से अंकुर का कारण है ही। मिट्टी-जलादि के संयोगरूप सहकारिकारण के न रहने से कोठार में रहा हुआ बीज अंकुर का जनन नहीं करता है. यह बात अन्य हैं। ग्रन्थकार ने "नियतपूर्ववर्तिना" इस वाक्य में “नियत" पद का प्रयोग किया है उम से अनन्यथासिद्धि का सूचन मिलता है, अतः अन्यथासिद्धि से शन्य हो और कार्य से पूर्व में रहता हो, वह कारण है, इस तरह की कारणत्यव्यवस्था व्यवहारनय

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