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उपा. यशोविजयरचिते न चोपादानोपादेयभावनियतैः क्षणैरेव कुर्वद्रूपत्वं नियम्यत इति वाच्यम् , क्षणत्वेन सर्वेषामविशेषादेकस्वभावस्य कुतोऽपि विशेषायोगात् । किञ्चैवं कार्येण कारणानुमानोच्छेदः, सामान्यतः कारणताग्रहाभावात् । न च सादृश्येन तथाग्रहाददोषः, पूर्वापराननुसन्धानेन क्षणिकपक्षे सादृश्यस्यैव ग्रहीतुमशक्यत्वादित्यादिकं व्युत्पादितं अनेकान्तजयपताकादौ पूर्वसूरिभिः । को मान्य है। अन्यथासिद्ध वे माने जाते हैं, जिन के बिना भी कार्य हो सकता हो जसेरासभादि । तथा वे भी अन्यथासिद्ध माने जाते हैं जो कार्य से पूर्व में रहते हुए भी कार्य की उत्पत्ति में जिन का कुछ भी योगदान नहीं होता है जैसे-दण्डगत दण्डत्व और रूपादि, कुम्भकार का पिता, आकाश इत्यादि । घटोत्पत्तिस्थान में घट की उत्पत्ति से पूर्व वे रहते हैं तो भी उन का कुछ भी उपयोग घट के उत्पादन में नहीं होता है, इसलिए वे भी अन्यथासिद्ध हैं । दण्ड, चीवर, चक्र, कुम्भकार, मृत्पिण्ड आदि घट के पूर्व में रहते हैं और घट की उत्पत्ति में उपकार भी करते हैं, इसलिए वे सब घट के प्रति कारणरूप से व्यवहारनय की दृष्टि से मान्य हैं। यदि कुर्वदरूपत्व होने के कारण चरम कारण को ही कारण माना जाय तो, कार्योत्पत्ति से पूर्वकाल में कुर्वदरूपत्व का निश्चय ही नहीं हो सकेगा, इसलिए तत्तत् घटादि कार्य की उत्पत्ति के लिए दण्डादि कारणों के अन्वेषण में जो प्रवृत्ति होती है, वह नहीं होगी । वस्तुस्थिति तो यह है कि कोई घटार्थिव्यक्ति कुम्भकार के घर जाकर कहता है कि मेरे लिए इतना घट बना दो । इस वाक्य को सुन कर कुम्भकार उन उन वस्तु के संग्रह के लिए प्रवृत होता है जो जो वस्तु घट की उत्पत्ति में उपयोगी हो, क्योंकि उन्हीं वस्तुओं मे उस को इष्टसाधनता का ज्ञान होता है और उस इष्टसाधनता ज्ञान से प्रवृत्ति होती है । कुर्वदुरूपत्व ही यदि कारणतावच्छेदक हो तो उस का निश्चय पूर्व में किसीतरह नहीं हो सका है आः दण्ड, चक्रादि में इष्टसाधनताज्ञान भी न होगा, फलतः प्रवर्तक के अभाव में दण्डादि विषयक प्रवृत्ति जो लोकदृष्ट है, वह निश्चयनय के मत मे न होगी। इसलिए व्यवहारनय निश्चय मतानुसारी कारणत्व को नहीं मानता है। दूसरी बात यह है कि जिस कर्वदरूपत्व के रहने से चरमकारण में ही कारणत्व की व्यवस्था निश्चयनय के मत से होती है, वह कुर्वदरूपत्व भी उपादानकारण में सहकारि कारणों का समवधान होने पर ही होता है। सहकारियों का समवधान न रहने पर तो चरमकारण में भी कुर्बदरूपत्व नहीं होता है, इसीलिए निश्चयनय सम्मत कुर्वदरूपत्व का भी नियामक सहकारिसमवधान को मानना आवश्यक होगा। तब सहकारिसमवधानविशिष्ट उपादानकारण से ही कार्य की उत्पत्ति यदि हो जाती हो तो मध्य में गुरुभूत कुर्वदरूपत्व मानने की जरूरत ही नहीं पडती, तब क्षेत्रस्थ बीजादि कुर्वदुरूप है और कोठारगत बीजादि अकुर्वदरूप है, इसतरह के भेद को मानने का कष्ट निश्चयवादी का निरर्थक है।
यदि निश्चयवादी ऐसा कहे कि-"कुर्वदरूपत्व को सहकारिचक्र से नियम्य नहीं मानते हैं, किन्तु जिन क्षणों में उपादानोपादेयभाव नियमतः रहता है, एसे उपादान