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नयरहस्ये कारणताविचारः
२१९ - अथाख्यातार्थसङ्ख्यान्वये भावनाविशेष्यत्वं न तन्त्रम् किं तु प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वमेवेति न दोष इति चेत् ? न, धात्वर्थप्रकारकबोधसामान्य एवाख्यातादिजन्योसाथ अभेदान्वयपक्ष में ज्ञानप्रकारक आश्रयत्वविशेष्यक अवान्तरबोध मानने की आवश्यकता नहीं रहती है क्योंकि आख्यातार्थ का भान ही नहीं होता है, तथा आख्यातजन्यउपस्थिति को कारण मानने की भी आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि आख्यातविशेष्यक अवान्तरबोध भी नहीं होता है।
यदि फिर से बीच में यह कहा जाय कि-"तण्डुलं पचति" इत्यादि स्थल में धात्वर्थ पाक प्रकारक आख्यातार्थकृतिविशेष्यक "अनुकूलत्व सम्बन्ध से पाकविशिष्टकृति" इत्याकारक बोध होता है, इसलिए धात्वर्थप्रकारकबोध के प्रति आख्यातजन्य उपस्थिति समानविशेव्यतासम्बन्ध से कारण है। इसतरह सामान्यरूप से कार्यकारणभाव तो माना हुआ ही है, तब गौरव की बात कहाँ रही ?” परन्तु बीच में यह कहा हुआ ठीक नहीं है क्योंकि सामान्यरूप से आख्यातजन्य उपस्थिति के कारण मान्य होने पर भी ज्ञानप्रकारक आश्रयत्वविशेष्यक बोध के प्रति “ज्ञा" धातु सहोच्चरित आख्यात सहोच्चाररूप आकांक्षाज्ञान को कारण मानना आवश्यक होगा, तथा 'आश्रयत्व निरूपितत्वसम्बन्ध से ज्ञानवान् है' इसतरह के योग्यताज्ञान को कारण मानना आवश्यक होगा, एवं “जानाति पद का 'ज्ञानप्रकारक आश्रयत्वविशेष्यक बोधजननेच्छा से वक्ता ने उच्चारण किया है'-इसतरह के तात्पर्यज्ञान को भी कारण मानना होगा, इस से गौरव रहेगा ही। अतः लक्षणा पक्ष ही युक्त है, यह आशंका करनेवाले का आशय है।
मैवम्] मैवं पद से उक्त आशंका का निषेध विवक्षित है कि-इसतरह का लक्षणापक्ष युक्त नहीं है, क्योंकि "जानाति" इस स्थल में आख्यात का अर्थ जो आश्रयता, उस का भान ही नहीं होगा तो आख्यातार्थ का अन्वय प्रथमान्तार्थ चैत्रादि में नहीं होगा, तब आख्यातार्थ संख्या का भी प्रथमान्तार्थ में अन्वय न होने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि आख्यात का मुख्य अर्थ भावना और लक्ष्यार्थ आश्रयता आदि का अन्धय जिस में होता है उसी में आख्यातार्थ संख्या का भी अन्वय होता है। इसलिए "चैत्रः पचति" इत्यादि स्थल में “एकत्वविशिष्ट चैत्र पाकानुकूलकृतिवाला है" ऐसा बोध होता है । “जानाति" यहाँ पर तो लक्षणापक्ष में आख्यातार्थ का भान ही नहीं होता है, तब तो अन्वयी ही कोई नहीं है इसलिए आख्यातार्थ संख्या का अन्वय कहीं भी नहीं हो पायेगा। निष्कर्षःलक्षणापक्ष युक्त नहीं है।
[अथाख्यातार्थ] यदि यह शंका की जाय कि-"आख्यातार्थसंख्या के अन्वय में भावनाविशेष्यत्व अर्थात् भावनान्वयित्व को प्रयोजक नहीं मानते है किन्तु प्रथमान्तपदजन्यबोधविषयत्व को ही प्रयोजक मानते हैं । तब तो आख्यातार्थ भावना का अन्वय जहाँ हो, उसी में आख्यातार्थ संख्या का अन्वय होता है-यह नियम नहीं रहेगा किन्त प्रथमान्तपद से जिस की उपस्थिति हो उसी में आख्यातार्थभावना का अन्वय हो, ऐसा ही नियम रहेगा । इस नियम के अनुसार "जानाति चैत्रः" इत्यादि स्थल में आख्यातार्थसंख्या का चैत्र में अन्वय हो जायगा क्योंकि “चैत्रः” इस प्रथमान्तपद से चैत्र की उप